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क्यों मनाते हैं ? दीपावली/ गोवर्धन पूजा/ भैय्या दूज/ KYON MNATE HAI ? DEEPAWLI/ GOVARDHAN POOJA/ BHAIYA DOOJ

क्यों मनाते हैं ?  दीपावली/ गोवर्धन पूजा/  भैय्या दूज/  KYON MNATE HAI ? DEEPAWLI/ GOVARDHAN POOJA/ BHAIYA DOOJ                ---: दीपावली:...

क्यों मनाते हैं ? 
दीपावली/ गोवर्धन पूजा/ 
भैय्या दूज/ 
KYON MNATE HAI ? DEEPAWLI/ GOVARDHAN POOJA/ BHAIYA DOOJ



 


           ---: दीपावली:---

भारत के संपूर्ण त्योहारों में दीपावली का अपना विशेष स्थान है। दीपावली के साथ हम लोगों का युगों- युगों से संबंध है । प्रतिवर्ष हिंदू जन-समुदाय इस पर्व को उल्लास और उत्साह के साथ समस्त भारतवर्ष में  मनाता आ रहा है।आपने देखा होगा कि दीपावली पर्व पर अन्य पर्वों की अपेक्षा प्रसन्नता, उत्सुकता ,उत्साह बहुत अधिक दिखलाई पड़ता है। 

आप भारत के किसी भी प्रांत में चले जाइए, इस पर्व के अवसर पर आपको सर्वत्र एक नया उत्साह,नई उमंग, नई ऊर्जा, प्रसन्नता प्रतीत होगी। यहां तक की लोग वर्ष भर इस पर्व के आने की तैयारी में रहते हैं और पर्व के आने से पूर्व लगभग एक माह से अपने घरों को सजाने लगते हैं।

स्वच्छता पर ध्यान दिया जाता है और इस स्वच्छता के  पृष्ठ भाग में भी एक बहुत बड़ा कारण है क्योंकि अमावस्या अंधकारमय होती है। अंधकारमय रात्रि को असंख्य दीपों की उज्जवल ज्योति से जगमगाया जाता है। इसमें केवल बालक ही नहीं अपितु वृद्ध, युवा, स्त्रियाँ सभी आनंद विभोर होकर के  माँ लक्ष्मी की उपासना करते हैं और दीप आलोकित करके लक्ष्मी जी को प्रसन्न करने की प्रार्थना करते हैं। 

लोग नूतन वस्त्रों को धारण करते हैं। इस अवसर पर देखा गया है कि भारत के किसी भी प्रांत में वह गरीब हो, मध्यमवर्गीय हो, उच्च वर्गीय हो बाजारों में जाकर भिन्न-भिन्न वस्तुएँ , मिठाईयाँ अपने घर के लिए खरीदते हैं और यदि कुल मिलाकर आकलन करें तो  यह त्यौहार लगभग सभी प्रांतों में एक जैसा ही मनाया जाता है। 

ऐसा भी देखा गया है कि पंजाब आदि प्रदेशों में इस अवसर पर लोग अपने -अपने घरों के ऊपर ध्वज (पताका )भी लहराते थे जो कि एक  विजय का सूचक के रूप में भी हो सकता है। ऐसा मानना है क्योंकि पंजाब  आक्रमणकारियों का केंद्र रहा ,युद्ध का क्षेत्र रहा इसलिए विजय के उपलक्ष्य में इस त्यौहार को मनाने के साथ-साथ लोगों के मन में विजय, आनंद,  उत्साह दिखाने का भी एक प्रयास माना जा सकता है।

अब हम यदि दीपावली की पृष्ठभूमि पर विचार करें तो इन प्रथाओं का मूल कहाँ से आरंभ होता है। इस विषय में जानना परम आवश्यक है। दीपावली का वर्तमान रूप कब से प्रारंभ हुआ। इस विषय में बहुत कुछ कहना असंभव है। 

लेकिन यदि हम ऐतिहासिक रूप से दृष्टिपात करें तो भारत कृषि प्रधान देश है। आज से हजारों वर्ष पूर्व इस उत्सव का प्रचलन ऋतु पर्व के रूप में हुआ था। क्योंकि इस समय तक शारदीय फसल पककर लोगों के घरों में आ जाती थी। अन्न भंडार धन-धान्य से भर जाते थे। रुई -कपास के आ जाने से लोगों को वर्ष भर के लिए वस्त्रों की चिंता से छुटकारा मिल जाती थी। अतः इस विषय को ध्यान में रखकर जनता के हृदय में उल्लास और उत्साह होता था ,आनंद होता था इसी आनंद से भावविभोर होकर के दीप मालिका जैसे पर्व त्योहार के रूप में लोगों ने  मनाना प्रारंभ किया परंतु जैसे-जैसे समय बीतता गया।

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अनेक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाएं दीपावली से संबंध स्थापित करती गई। पुराण इतिहास के ग्रंथों में दीपावली के संबंध में अनेक ऐसे संबंध स्थापित हुए मिलते हैं। स्कंध पुराण, पद्मपुराण ,भविष्य पुराण में इसके संबंध में भिन्न-भिन्न मान्यताएं मिलती हैं। महाराज पृथु द्वारा दीन -हीन भारत को पृथ्वी दोहन करके धन प्राप्ति के साधनों के नवीकरण द्वारा उत्पादन शक्ति में विशेष वृद्धि करके समृद्धि तथा सुखी बना देने पर उनकी इस अपूर्व सफलता के उपलक्ष्य में दीपावली के प्रारूप का उदय होना ऐसा लिखा गया है तो कहीं पर आज के दिन समुद्र मंथन से भगवती लक्ष्मी के जन्म होने और इसकी प्रसन्नता के उपलक्ष्य में लोगों द्वारा इस उत्सव को मनाए जाने का उल्लेख भी प्राप्त होता है। 

कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को दुष्ट अत्याचारी शासक नरकासुर का वध करके उसके बंदी गृह से अनेक राजाओं और 16000 राज कन्याओ का उद्धार करने पर भगवान कृष्ण का अभिनंदन करने के लिए भयमुक्त जनता ने चतुर्दशी से अगले दिन अमावस्या को 'दीपमालिका' मनाई थी। ऐसी भी एक पौराणिक गाथा उपलब्ध होती है। 

पाण्डवों के वनवास से लौटने पर:--

महाभारत के आदि पर्व में पांडवों के 13वर्ष बनवास से लौटने पर प्रजा जनों द्वारा उनके स्वागत में नगरों को सजाने तथा उत्सव मनाने का भी उल्लेख प्राप्त होता है और कुछ लोग इसका संबंध भी दीपावली से जोड़ते हैं जबकि कुछ जन श्रुतियों के अनुसार सम्राट विक्रमादित्य के विजय उपलक्ष्य में लोगों द्वारा दीप मालाएं प्रकाशित करने का भी एक वाद प्रचलित है। 

भगवान राम के लंका विजय उपरांत अयोध्या में राज्याभिषेक हो जाने पर जब दीपावली पर्व आया होगा तो निश्चय ही सर्वसुखी जनता ने उसे अधिक उल्लास और उत्साह से मनाया होगा और उस उल्लास जन्य अभूतपूर्व  समारोह ने ही शायद इस जनश्रुति को जन्म दिया हो कि दीपावली का प्रारंभ श्रीराम जी के विजय के उपलक्ष्य में हुआ। 



इन समस्त घटनाओं में दीपावली का मूल कहाँ है? हमे इस विवाद में नहीं पड़ना चाहिए लेकिन समन्वयात्मक दृष्टि से हम तो यही कह सकेंगे कि  आज से लाखों-लाख वर्ष पूर्व अतीत में धन -धान्य, समृद्धि से हर्ष और विभोर होकर जनों द्वारा जग पालक लक्ष्मीनारायण को कृतज्ञता पूर्ण उल्लास मिश्रित वंदना के रूप में प्रारंभ हुए इस ऋतु पर्व में समय-समय पर अनेक महत्वशाली ऐतिहासिक घटनाओं का मिश्रण होता गया और वर्तमान दीपावली और सब को अपने अंतर में संजोए हुए भारतीयों के लिए एक जीवित जागृत महान राष्ट्रीय पर्व के रूप में प्रतिवर्ष हमारे सामने आता है।

दीपावली पर्व में लक्ष्मी पूजन समावेश का इतिहास बहुत ही मनोरंजक एवं महत्वपूर्ण है सनत्कुमार गीता में लिखा है कि एक बार  राजा बली ने समस्त भूमंडल पर अधिकार कर लक्ष्मी सहित संपूर्ण देवताओं को अपने कारागार में डाल दिया और भूमंडल पर एकछत्र शासन करने लगा लक्ष्मी के अभाव से समस्त संसार दुखी हो गया यज्ञ, धर्म ,कर्म आदि सभी बंदी हो गए। उस समय देवताओं की प्रार्थना पर भगवान विष्णु ने वामन रूप धारण करके बड़ी कुशलता से उस पराक्रमी दैत्य कि आसीम शक्ति पर विजय प्राप्त की और लक्ष्मी को उसके बंधन से मुक्त किया। जिससे समस्त संसार में प्रसन्नता की अपूर्व लहर छा गई आसुरी शासन से मुक्त प्रजा के सदस्यों में प्रकाशमान व हर्ष ज्योति दीपकों का साकार रूप धारण कर अखिल विश्व  जगमगा उठा इस अवसर पर भगवती लक्ष्मी का विशेष रूप से पूजन सम्मान हुआ क्योंकि वह बलि के कारागार की कठोर यातनाओं को सहकर चिरकाल के आनंद प्रमुख हुई थी।

इस कथानक के काव्यांश को जोड़ देने पर इससे सीधा अर्थ यही निकल कर आता है कि दैत्य राजा बली ने  प्रजा के ऊपर भारी कर आदि लगाकर उसकी समस्त लक्ष्मी धन को अपने राजकोष में संचित कर डाला था। यहां तक कि धन के अभाव में समस्त संसार पीड़ित हो गया।  तब भगवान विष्णु ने वामन रूप धारण करके कुशलता पूर्वक दैत्य को हराकर राजकोष में संचित समस्त धन को संसार में बांट दिया। फलतः  आर्थिक क्रांति का महान पर्व होने के कारण या समस्त भारत का सम्माननीय पर्व बन गया ।

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दीपावली एक सर्वजातिय पर्व है:--

दीपावली हमारा प्राचीन पर्व तो है ही परंतु इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि यह किसी जाति वर्ग या प्रांत विशेष का उत्सव ना होकर  सर्वजातिय- उत्सव है। इसकी अविच्छिन्न ऐतिहासिक परंपरा के अध्ययन से ज्ञात होता है कि भारतीय लोग इसे सुख में दुख में शांति काल में युद्ध में अर्थात् सभी तरह की परिस्थितियों में मनाते आ रहे हैं ।यद्यपि इस  दीर्घ काल में भारत में अनेक परिवर्तन हुए अनेक विदेशी राजा और संस्कृतियां आई यहां आए प्रभुत्व शाली बनी और नष्ट हो गई किंतु दीपावली जैसे प्रमुख पर कोई प्रभाव न पड़ा इन सब तूफानों में भी यह दिए हमेशा जलते रहें वैदिक साहित्य के अनंतर हमें संपूर्ण  भारतीय साहित्य में दीपावली का वर्णन प्राप्त होता है। 

जैन धर्म के लिए दीपावली का महत्व:--



कल्पसूत्र नामक जैन ग्रंथ अनुसार आज से अढाई हजार वर्ष पूर्व आज ही के दिन जैन संप्रदाय प्रवर्तक श्री महावीर स्वामी जी ने अपनी ऐहिक लीला संवरण की थी। उस समय देश देशांतर से आए हुए उनके शिष्यों ने निश्चय किया कि ज्ञान सूर्य तो अस्त हो गया अब दीपों का प्रकाश करके यह दिन मनाना चाहिए उनके अनुसार स्वामी जी की स्मृति में उस में विशेष दीपोत्सव होने का वर्णन जैन ग्रंथों में प्राप्त होता है। महर्षि वात्सायन अपने "कामसूत्र" में इसे यक्ष रात्रि के नाम से समर्थन करते हैं। उनके  समय में यह सामान्य उत्सव ना होकर "माहिमान्य" उत्सव के रूप में मनाया जाने वाला विशेष पर्व था। 

सप्तशती में हर्षवर्धन इसका उल्लेख अपने नाटक नागानंद में "दीपप्रतिपदुत्सव" के नाम से करते हैं। जिससे ज्ञात होता है कि अब की भांति उस कालखंड में भी दीपावली कई दिनों तक मनाई जाती थी। उसके समकालीन `नील मत पुराण ʼनामक ग्रंथ में तो ' "कार्तिक अमायां", "दीपमाला वर्णनम्" ' से एक स्वतंत्र अध्याय ही इस त्यौहार के वर्णन में उपलब्ध होता है। 10 वीं शताब्दी में सोमदेव सूर्य ने अपने "यशस्तिलकचंपू में इस अवसर पर" लोगों द्वारा मकानों की सफाई विविध मनोरंजक और प्रज्वलित दीपों से वृक्ष आदि बनाकर उससे भवन को सजाने का वर्णन करता है ।

विष्णु जी की पत्नी लक्ष्मी जी का पूजन:--


11वीं शताब्दी में भारत भ्रमण के लिए आने वाले मुसलमान पर्यटक अलबेरूनी ने लिखा है हिंदुस्तान के घर घर में विष्णु पत्नी लक्ष्मी का पूजन किया जाता है। लोग सुन्दर-सुन्दर कपड़े पहन कर एक दूसरे से मिलते हैं। पान सुपारी भेंट करते हैं। देवताओं के दर्शन के लिए मंदिरों में जाते हैं। खूब दान देते हैं रात में चिरागों की रोशनी करते हैं। इसी प्रकार 15वीं शताब्दी में भारत भ्रमण करते हुए इटली के पर्यटक निकोलाई काण्टी ने दीपावली की रात को मंदिरों और भवनों की छतों पर दीपमाला के प्रकार का वर्णन किया है। हिंदी साहित्य के मूर्धन्य कवि सूरदास तुलसी आदि की  कविता में दीपावली का जो मनोरम वर्णन प्राप्त होता है।वह अपना सानी नहीं रखता अकबर के समय की दीपावली आज की दीपावली की थी।  जिसकी तुलना मुस्लिम इतिहासकार अब्दुल फजल ने आईने अकबरी में मुसलमानों के शवरात त्यौहार से की है और शाही दरबार की तरफ से इस उत्सव के मनाने का उल्लेख किया है इस प्रकार हम देखते हैं कि हमारा यह राष्ट्रीय पर्व बहुत पुराने काल से इसी रूप में अविच्छिन्न रूप से चला आ रहा है। 

वैज्ञानिकता क्या है इस विषय में अभी हम चर्चा करें तो स्वच्छता, भवन सज्जा , लक्ष्मी पूजन में बही खातों का प्रचलन दीपमाला आदि सभी कार्य रहस्य पूर्ण तो है ही किंतु अनेक दृश्यों से अत्यंत महत्वपूर्ण भी पुराणों में इस रात्रि को महारात्रि शब्द से स्मरण किया है और साधकों के लिए प्रमुख पर्व माना है। 

आज भी मंत्र साधक व्यक्ति इस महारात्रि में जागरण करते हुए अपने जाप्य मंत्र को सिद्ध किया करते हैं। इस पर्व पर किया जाने वाला प्रकाश मानव हृदय की जिस चिरंतन भावना का प्रतिरूप है। वह है अंधकार से भटकते हुए मानव समाज को प्रकाश दान कर सन्मार्ग पर लाने की भावना प्रकाश ज्ञान का दूसरा रूप है।  दीपावली के दिन लाखों दीपों को प्रज्ज्वलित कर मानो हम अपनी इसी भावना को प्रतिफलित हुआ पाते हैं। इससे हमारे हृदय में असीम संतोष का उदय होता है। इसीलिए शास्त्रों में यूं तो संपूर्ण कार्तिक मास ही किंतु विशेषतया इन दिनों में दीपदान का बड़ा   महत्त्व है। हम अपने घरों को आलोकित करने के साथ-साथ कुआं, मंदिर  तालाब ,धर्मशाला, चौराहा आदि उन सार्वजनिक स्थानों को भी प्रकाशित करना नहीं भूलते। 

जिनसे हजारों प्राणी लाभान्वित होते हैं कार्तिक में दीपदान के विशेष शास्त्रीय विधान का अर्थ स्पष्ट है कि अभी- अभी समाप्त हुई वर्षा ऋतु से उत्पन्न अनेक विषैले जंतु लावारिस सार्वजनिक स्थानों में व्याप्त हो जाया करते हैं। दिन में तो वह सूर्य प्रकाश से दिखाई दे सकते हैं परंतु रात्रि में वहाँ प्रकाश कौन करें? अतः समशीतोष्ण माह भर प्रकाश रखने के लिए शास्त्रों ने ऐसा विधान किया है ।कार्तिक के बाद फिर तो जाड़े की ऋतु आरंभ हो ही जाती है। अतः ऐसे जंतु स्वयं ही भूमिगत हो जाते हैं।  आज के दिन लक्ष्मी पूजन के अतिरिक्त बही  खातों मे आय -व्यय रजिस्टर आदि के पूजन की भी प्रथा है।

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भारतीय अर्थ प्रणाली के अनुसार यह हमारे आर्थिक वर्ष का प्रथम दिन है। इस दिन हम अपने पिछले वर्ष के समस्त आय- व्यय तथा हानि- लाभ आदि का गंभीरतापूर्वक निरीक्षण करते हैं और भविष्य के लिए महत्वपूर्ण निर्णय भी लेते हैं। दूसरे शब्दों में इस दिन देश  प्रत्येक व्यक्ति अपनी आर्थिक प्रगति का निरीक्षण करता है। इस प्रकार यह दिन समस्त देश की आर्थिक उन्नति की जांच का दिन  भी सिद्ध होता है। 

देश के स्वास्थ्य को उन्नत करना:--

इस पर्व का एक उद्देश्य देश के स्वास्थ्य को उन्नत करना भी है वर्षा ऋतु में धूप की कमी तथा विशुद्ध जल अभाव के कारण वायुमंडल में अनेक कीटाणु व्याप्त हो जाते हैं। 

मच्छरों की अधिकता ऋतु ज्वर मलेरिया आदि रोग विशेष रूप से फैलते हैं और नागरिक स्वास्थ्य अपने स्वाभाविक स्तर से निम्न हो जाता है। कार्तिक में शरद ऋतु अपने पूर्ण विकास पर होती है वहीं वातावरण में फैले हुए स्वास्थ्य के लिए हानिकारक कारणों को दूर करने में प्रकृति अपना तन मन लगा देती है आंतरिक वातावरण में फैले हुए स्वास्थ्य दूषक कारणों को दूर करने में इस पर्व से बड़ा सहयोग प्राप्त होता है। पहले लोग अभी तक की ऋतु में लोग प्रायः घरों के बाहर खुले में सोते थे परंतु अब 'घरों के अंदर' सोने की ऋतु आरंभ हो गई है। 

अतः यह परम आवश्यक है कि उन घरों को साफ स्वच्छ किया जाए इस अवसर पर लोग अपने घरों को स्वच्छ करते हैं  नीला थोथा, सफेदी तथा द्वारा पुतवा कर सीलन ,दुर्गंध आदि हानिकारक तत्वों को दूर किया जाता है। निवास स्थान के प्रत्येक भाग को दीपों द्वारा आलोकित किया जाता है दीपक पुण्य से प्राप्त होने वाला प्रकाश तथा उष्णता वर्षा जनित रोग कीटाणुओं के विनाश में सर्वथा समर्थ होते हैं।

आर्थिक दृष्टिकोण:--

यहाँ प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या दीपावली को एक ही रात में होने वाले अरबों रुपए के इस विनिमय का राष्ट्र की अर्थव्यवस्था पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। 

अवश्य ही अर्थशास्त्र की दृष्टि से यह लक्ष्मी का वास्तविक पूजन है।  हम इस बहाने से राष्ट्र की अमित संपत्ति का वितरण राष्ट्र में ही कर देते हैं। इस प्रकार दीपावली राष्ट्र की लक्ष्मी को राष्ट्र में ही रख कर इस देश को समृद्ध बनाने में महान सहयोग देती है।

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भारत देश सदा से ही समृद्ध रहा है और यहाँ की संस्कृति समृद्धि पूर्ण है मानव क्या है, मानव किसे कहते हैं, मानव का उद्देश्य क्या है? मानव इस पृथ्वी पर क्यों अवतरित हुआ है? इन सब प्रश्नों के उत्तर भारतीय संस्कृति के पास उपलब्ध है। संसार के पास आज ऐसी कोई संस्कृति नहीं ,संस्कार नहीं, शिक्षा नहीं ,पद्धति नहीं जो केवल भारत देश के पास है। सही अर्थो में भारतीय संस्कृति मनुष्य निर्माण करने का काम करती है।  

इसलिए आज दीपावली के अवसर पर अपने ही देश की निर्मित मिष्ठान वस्तुएं एवं बहुमूल्य उपहार परस्पर वितरित किए जाते हैं।  यही वितरण प्रणाली भारत को एकता अखंडता के साथ जोड़ती है। इसी के साथ आप सभी को इस राष्ट्रीय पर्व की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।


           ---: नरक चतुर्दशी :---

भारतीय परंपराएं वैज्ञानिकता के आधार पर मनाई जानी जाती हैं इसी क्रम में नरक चतुर्दशी या छोटी दीपावली के नाम से प्रसिद्ध यह पर्व भगवान श्री कृष्ण द्वारा संपूर्ण संसार को भयमुक्त करने के हेतु से इस दिन नरकासुर नामक राक्षस का वध करके संसार को भयमुक्त किया था इस प्रसन्नता के उपलक्ष्य में यह पर्व मनाया जाने लगा ऐसा पुराणों में उल्लेख प्राप्त होता है। शास्त्रीय विधान के अनुसार इस दिन प्रातः काल समीप में किसी नदी सरोवर के तट पर तेल आदि लगाकर के अपामार्ग आदि से अभिमंत्रित जल में स्नान करना चाहिए तेल लेपन का यह शास्त्रीय आदेश सर्वथा हितकारी है। दीपावली के अवसर पर घरों  को स्वच्छ किया जाता है उन्हें सफेदी नीला थोथा से पोता जाता है झाड़ा संवारा जाता है इससे शरीर मैला हो जाता है और जिससे चर्म रोगों के होने की संभावना बढ़ जाती है और उसके साथ साथ चूना सफ़ेदी के द्वारा शारीरिक थकावट भी महसूस होती है इन समस्त उपद्रव के उपसमनार्थ तथा शरीर में पुनः नवीन स्फूर्ति का संचार हो इसलिए भी कई तैल लेपन परम आवश्यक है इससे व्यक्ति अच्छी तरह समझ सकता है ।


भगवान धनवंतरी जी की जयंती:-- 

ऐसा कौन भारतीय होगा जो अमृत  प्रदाता भगवान धनवंतरी के नाम से परिचित नहीं होगा संसार के रोगियों के लिए अमृत कलश लिए हुए समुद्र मंथन से उत्पन्न होने वाले धनवंतरी ने संसार में आयुर्वेद विद्या का प्रचार प्रसार कर जो महान उपकार किया है वह किसी से छुपा नहीं है। कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी उन्हीं भगवान धनवंतरी की जयंती का दिन है जिसे साधारण जनता धनतेरस के नाम से खूब जानती है। अपनी कठिन तपस्या, अविरल साधना और गंभीर अन्वेषण पूर्ण अनुभूति से भरा आयुर्वेद जैसा महान ज्ञान प्रदान करने वाले इन आचार्य के प्रति हिंदू जाति कितनी ऋणी है। यह कहने की आवश्यकता नहीं है। इस दिन हमें उस महान आत्मा के गुणों  का गुणगान  गाकर उनके ऋण से मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए। वहाँ साथ ही साथ धन्वंतरी जी द्वारा कहे गए रहस्य की भी गांठ बांध लेनी चाहिए । 



यस्य देशस्य यो जन्तुस्तज्जं तस्यौषधं हितम्:-अर्थात् जो पुरुष जिस देश में उत्पन्न हुआ है उस देश की भूमि में उत्पन्न जड़ी बूटियों से निर्मित औषध ही उसके लिए वस्तुतः लाभकारी हो सकती है अर्थात् यदि हिमालय में कोई औषधि उत्पन्न होती है तो उस औषधि का सेवन, उस औषधि का लाभ, हिमालय वासियों को ही मिलेगा। इसलिए स्थान विशेष की प्रधानता के अनुसार ही औषधियों का चयन करना चाहिए। जिससे लाभ की प्राप्ति हो वर्तमान समय काल तक तो  धनवंतरी  का प्रचार प्रमुख रूप से वैद्य समुदाय में ही है। किंतु आज जब कि रोग को समूल नाश करने वाले आयुर्वेद के उपचार की उपेक्षा कर लोग स्वल्पकालिक लाभप्रद है। किंतु परिणाम दुखद पाश्चात्य चिकित्सा की तरफ अत्यधिक आकर्षित होते जा रहे हैं। तब आवश्यकता इस बात की है कि भगवान धन्वंतरी कि यह जयंती आम जनता में खूब धूमधाम से मनाई जाए और जनता को देशी औषधियों के प्रति प्रेम उत्पन्न करने की प्रेरणा की जाए एक समय था जब पराधीनता के दिनों में विलायती माल के बहिष्कार की हवा इस देश में चल रही थी और यह समझा जाता था कि विलायती वस्तु को प्रोत्साहन देना देशद्रोह है और देश के धन को विदेश भेजना भी देशद्रोह है किंतु आज इसके विपरीत ना केवल जनता किंतु राष्ट्रीय सरकारें भी स्वदेशी आयुर्वेद प्रणाली को प्रोत्साहन न देकर पाश्चात्य चिकित्सा को ही देश के लिए कल्याणकारी समझ रही है दुख की बात है ।अतः धन्वंतरी जयंती पर सभी को प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति की उन्नति में अधिक से अधिक सहयोग करें इस दिन प्रदोष काल में सायंकाल में दीपदान एवं नैवेद्य चढ़ाने पर अकाल मृत्यु से रक्षा होती है शास्त्रों मे ऐसा उल्लेख सत्य ही कहा है मानव जीवन को अकाल मृत्यु से बचाने के लिए दो ही वस्तुएं तो हैं प्रकाश अर्थात् ज्ञान और नैवेद्य अर्थात उचित खुराक यदि यह दोनों ही वस्तुएं आप खुले हाथों से दान दें तो ना केवल आपकी परंतु सभी देशवासियों की अकाल मृत्यु से निसंदेह रक्षा होगी। 


 गोवर्धन पूजा:---

कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धन पूजन का पर्व होता है इसका प्रारंभ 5000 वर्ष पूर्व भगवान कृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत की तलहटी के उद्धार और कृषि संसाधनों के नवीकरण के अवसर पर हुआ था। इस पर्व के प्रारंभ होने से पूर्व ब्रज मंडल की जनता देव आधारित थी। अन्न के लिए वर्षा पर निर्भर रहती थी यद्यपि उस के समीप गोवर्धन पर्वत जैसा जल से परिपूर्ण  था। जिसका समुचित उपयोग करने पर बहुत अच्छी खेती हो सकती थी। किंतु लोगों का ध्यान इस ओर कभी नहीं गया वह वर्षा की प्रतीक्षा करते रहते थे और इंद्र देव को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ करते और उसी की कृपा पर निर्भर रहते थे। 

बालक कृष्ण जी ने जिनका जन्म ही लोगों के कल्याण के लिए हुआ था उन्होंने इन्द्र के विरोध में लोगों को संगठित किया गोवर्धन का उद्धार करने के लिए सामूहिक प्रयास किया । स्रोतों  जो जल अभी तक व्यर्थ ही बह रहा था गोवर्धन के आंचल में फैली हुई जो वनस्पति, धान्य ,समृद्धि लोगों की उपेक्षा से प्रतिवर्ष नष्ट हो जाती थी जो सैकड़ों बीघा भूमि बंजर पड़ी हुई थी। उसकी ओर समुचित ध्यान दिलाया गया और उसकी व्यवस्था की गई इससे संपूर्ण ब्रजमंडल शीघ्र ही धनधान्य से पूर्ण हो गया। देव मातृक ब्रजमंडल एक ओर जहां सूखे के अकाल से पीड़ित बना रहता था। वहां समय-समय पर अतिवृष्टि के कारण बहुत समीप में बहने वाली यमुना की बाढ़ से भी संपूर्ण ब्रजमंडल प्रभावित होता था इस प्रकार यह प्रदेश कई प्रकार की विपत्तियों से अनंत काल से कष्ट भोग रहा था। वर्षा का संबंध इंद्रदेव से है यह वेद का अटल सिद्धांत है। परंतु वहां पर ग्वाले आलस्य और मोहवश परंपरा से स्वयं किसी भौतिक उपाय का उपयोग ना करके केवल देवता आधारित उपाय मात्र के अनुष्ठान से ही इन विपत्तियों को दूर हो जाने के लिए इंद्र देव के प्रति निष्ठा रखते थे। अतः केवल इंद्र पूजा मात्र पर निर्भर रहते थे शास्त्र में इन विपत्तियों को दूर करने के लिए देवीय शक्ति की आराधना के अनेकों अनुष्ठानों का उल्लेख प्राप्त होता है। 

परंतु इसका यह अभिप्राय कभी भी नहीं होना चाहिए कि हम हमेशा देव के भरोसे पर पुरुषार्थ को तिलांजलि दें। आराध्य देवता आराधक को वैसी ही बुद्धि प्रदान करते हैं । जिसके उपयोग से यदि चाहे तो साधक भौतिक साधनों को अपने अनुकूल बना सकता है तथा प्रतिकूल प्राकृतिक तथ्यों को भी अपने पुरुषार्थ बल से प्रतिकार कर सकता है जो आलसी प्राप्त संसाधनों का सदुपयोग ना करके केवल भाग्य को ही नौकर की तरह अपने सब कार्य कर डालने को पुकारते हैं । वह अपने भाग्य का ही अपमान करते हैं। जिस प्रकार से रोग के निदान के लिए नियमानुसार औषधि सेवन और पथ्य दोनों आवश्यक हैं ठीक इसी प्रकार से कार्य सिद्धि के लिए देवीय शक्ति का आशीर्वाद और अपना प्रयत्न पूर्वक पुरुषार्थ दोनों ही अति आवश्यक है। परंतु वहां ग्वाले केवल इंद्र पूजा रूपी देवीय साधना पर ही निर्भर रहते थे स्वयं कुछ मेहनत नहीं करते थे  । वह अनावृष्टि तथा अतिवृष्टि की समस्या का उचित समाधान नहीं कर पाते थे।

भगवान श्री कृष्ण जी ने गोवर्धन से वर्षा काल में बहने वाले जल को एक बहुत बड़े तालाब के रूप में बांधकर जहां अनावृष्टि के समय सिंचाई का प्रबंध किया वहां इंद्र के कोप से होने वाली अतिवृष्टि की दुखद बाढ़ में डूबते हुए ब्रजमंडल को भी गोवर्धन उठाकर बचा लिया इस प्रकार से जब गोवर्धन में जल स्रोत को आवश्यकता पड़ने पर उपयोग में लाया जाने लगा जल तब पशुओं को एवं खेती की सिंचाई भरपेट चारा और  शुद्ध पानी मिलने लगा तो उस पर्वत का नाम गोवर्धन  चरितार्थ हो गया गोवर्धन उद्धार कि वह दुःखद समृति आज भी हमारे ह्रदय पटल में हमेशा सुरक्षित है भारत जैसे कृषि प्रधान देश में गोवर्धन पूजा जैसे पर्वों की अत्यंत आवश्यकता है जैसा की नाम से ही स्पष्ट है हमें इस दिन अपने राष्ट्र की गो अर्थात् पृथ्वी और गाय दोनों की उन्नति के लिए विकास के प्रति ध्यान देना चाहिए। इनका संवर्धन करना चाहिए और हमेशा हमेशा इनके संवर्धन के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। 


भ्रातृ- द्वितीया / भैय्या दूज:---

कार्तिक शुक्ल द्वितीया को संपन्न होने वाला पर्व भ्रातृ द्वितीय या भैया दूज हिंदू समाज का आदर्श पारिवारिक पर्व है।

पौराणिक कथा के अनुसार इस दिन भगवान यम अपनी बहन यमुना के यहां मिलने जाया करते हैं और उन्हीं के अनुकरण पर इस दिन जो लोग अपनी बहनों से मिलते हैं उनकी इच्छा के अनुसार सम्मान पूजा आदि करके उनसे आशीर्वाद रूप तिलक प्राप्त करते हैं। उन्हें इस दिन मृत्यु भय नहीं रहता।

इस कथा के अनेक भागों में एक भाव है कि धर्मशास्त्र नियमानुसार कन्या पितृ संपत्ति की उत्तराधिकारी नहीं है। तथापि उसे पितृ कुल की ओर से अनधिकृत रूप से कुछ भाग अवश्य प्राप्त हो इसके लिए ऐसे अनेक पर्व उत्सव आदि का विधान शास्त्रों में किया है। जिससे लड़कियों को पितृ कुल की ओर से यह  सम्मान एवं धन आदि प्राप्त हो भैया दूज भी एक ऐसा ही पर्व है इस अवसर पर भाई अपनी बहनों के यहां उनको अपने परिवार के रीती रिवाज एवं स्थिति का परिचय करते हैं। उनके सुख-दुख  को जानते हैं अपनी सामर्थ्य अनुसार उसे भेंट देकर के भविष्य को दृढ़ करते हैं। पारिवारिक संगठन ही भारतीय कुटुंब प्रणाली का एक उदाहरण है। 


विनम्र निवेदन:-- 

आप सभी के लिए किया गया,  

उपरोक्त प्रयास कैसा लगा  ? 

कृपया अपना अमूल्य सुझाव comment box में जाकर 

अवश्य ही published कीजिएगा।

🙏

🇮🇳राजेश राष्ट्रवादी



1 comment

  1. आप और आपके समस्त अपनों को भी दीपावली-महोत्सव की मंगलकामनाएँ।🙏

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