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जब 'महर्षि मतंग' अपनी शिष्या 'भिलनी- शबरी' के सामने घुटने टेककर बैठ गए !/ प्रेरणादायक प्रसंग

जब 'महर्षि मतंग' अपनी शिष्या 'भिलनी- शबरी'  के सामने घुटने टेककर बैठ गए ! शबरी को आश्रम सौंपकर महर्षि मतंग जब देवलोक जाने लग...


जब 'महर्षि मतंग' अपनी शिष्या 'भिलनी- शबरी'  के सामने घुटने टेककर बैठ गए !


शबरी को आश्रम सौंपकर महर्षि मतंग जब देवलोक जाने लगे, तब शबरी भी साथ जाने की जिद करने लगी। शबरी की उम्र दस वर्ष थी। वो महर्षि मतंग का हाथ पकड़ रोने लगी।

महर्षि शबरी को रोते देख व्याकुल हो उठे। शबरी को समझाया "पुत्री इस आश्रम में भगवान आएंगे, तुम यहीं प्रतीक्षा करो।" 

अबोध शबरी इतना अवश्य जानती थी कि गुरु का वाक्य सत्य होकर रहेगा, उसने फिर पूछा- कब आएंगे..?

महर्षि मतंग त्रिकालदर्शी थे। वे भूत भविष्य सब जानते थे, वे ब्रह्मर्षि थे। महर्षि शबरी के आगे घुटनों के बल बैठ गए और शबरी को नमन किया।

 आसपास उपस्थित सभी ऋषिगण असमंजस में डूब गए।  ये उलट कैसे हुआ। गुरु यहां शिष्य को नमन करे, ये कैसे हुआ???

महर्षि के तेज के आगे कोई बोल न सका।
महर्षि मतंग बोले- 
पुत्री अभी उनका जन्म नहीं हुआ।
अभी दशरथ जी का लग्न भी नहीं हुआ।
उनका कौशल्या से विवाह होगा। फिर भगवान की लम्बी प्रतीक्षा होगी। 
फिर दशरथ जी का विवाह सुमित्रा से होगा। फिर प्रतीक्षा..

फिर उनका विवाह कैकई से होगा। फिर प्रतीक्षा.. 

फिर वो जन्म लेंगे, फिर उनका विवाह माता जानकी से होगा। फिर उन्हें 14 वर्ष वनवास होगा और फिर वनवास के आखिरी वर्ष माता जानकी का हरण होगा। तब उनकी खोज में वे यहां आएंगे। तुम उन्हें कहना आप सुग्रीव से मित्रता कीजिये। उसे आतताई बाली के संताप से मुक्त कीजिये, आपका अभीष्ट सिद्ध होगा। और आप रावण पर अवश्य विजय प्राप्त करेंगे।

शबरी एक क्षण किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई। अबोध शबरी इतनी लंबी प्रतीक्षा के समय को माप भी नहीं पाई।

वह फिर अधीर होकर पूछने लगी- "इतनी लम्बी प्रतीक्षा कैसे पूरी होगी गुरुदेव???"

महर्षि मतंग बोले- "वे ईश्वर है, अवश्य ही आएंगे। यह भावी निश्चित है। लेकिन यदि उनकी इच्छा हुई तो काल दर्शन के इस विज्ञान को परे रखकर वे कभी भी आ सकते है। लेकिन आएंगे "अवश्य"...!

जन्म मरण से परे उन्हें जब जरूरत हुई तो प्रह्लाद के लिए खम्बे से भी निकल आये थे। इसलिए प्रतीक्षा करना। वे कभी भी आ सकते है। तीनों काल तुम्हारे गुरु के रूप में मुझे याद रखेंगे। शायद यही मेरे तप का फल है।"

शबरी गुरु के आदेश को मान वहीं आश्रम में रुक गई। उसे हर दिन प्रभु श्रीराम की प्रतीक्षा रहती थी। वह जानती थी समय का चक्र उनकी उंगली पर नाचता है, वे कभी भी आ सकतें है। 

हर रोज रास्ते में फूल बिछाती है और हर क्षण प्रतीक्षा करती।

कभी भी आ सकतें हैं।
हर तरफ फूल बिछाकर हर क्षण प्रतीक्षा। शबरी बूढ़ी हो गई।लेकिन प्रतीक्षा उसी अबोध चित्त से करती रही।

और एक दिन उसके बिछाए फूलों पर प्रभु श्रीराम के चरण पड़े। शबरी का कंठ अवरुद्ध हो गया। आंखों से अश्रुओं की धारा फूट पड़ी।

गुरु का कथन सत्य हुआ। भगवान उसके घर आ गए। शबरी की प्रतीक्षा का फल ये रहा कि जिन राम को कभी तीनों माताओं ने जूठा नहीं खिलाया, उन्हीं राम ने शबरी का जूठा खाया।

ऐसे पतित पावन मर्यादा, पुरुषोत्तम, दीन हितकारी श्री राम जी की जय हो। जय हो। जय हो। एकटक देर तक उस सुपुरुष को निहारते रहने के बाद वृद्धा भीलनी के मुंह से स्वर/बोल फूटे-

"कहो राम ! शबरी की कुटिया को ढूंढ़ने में अधिक कष्ट तो नहीं हुआ..?"

राम मुस्कुराए- "यहां तो आना ही था मां, कष्ट का क्या मोल/मूल्य..?"

"जानते हो राम! तुम्हारी प्रतीक्षा तब से कर रही हूँ, जब तुम जन्मे भी नहीं थे, यह भी नहीं जानती थी कि तुम कौन हो ? कैसे दिखते हो ? क्यों आओगे मेरे पास ? बस इतना ज्ञात था कि कोई पुरुषोत्तम आएगा, जो मेरी प्रतीक्षा का अंत करेगा।

राम ने कहा- "तभी तो मेरे जन्म के पूर्व ही तय हो चुका था कि राम को शबरी के आश्रम में जाना है।”

"एक बात बताऊँ प्रभु ! भक्ति में दो प्रकार की शरणागति होती है। पहली ‘वानरी भाव’ और दूसरी ‘मार्जारी भाव’।

”बन्दर का बच्चा अपनी पूरी शक्ति लगाकर अपनी माँ का पेट पकड़े रहता है, ताकि गिरे न...  उसे सबसे अधिक भरोसा माँ पर ही होता है और वह उसे पूरी शक्ति से पकड़े रहता है। यही भक्ति का भी एक भाव है, जिसमें भक्त अपने ईश्वर को पूरी शक्ति से पकड़े रहता है। दिन रात उसकी आराधना करता है...!” (वानरी भाव)

पर मैंने यह भाव नहीं अपनाया। ”मैं तो उस बिल्ली के बच्चे की भाँति थी, जो अपनी माँ को पकड़ता ही नहीं, बल्कि निश्चिन्त बैठा रहता है कि माँ है न, वह स्वयं ही मेरी रक्षा करेगी,   और माँ सचमुच उसे अपने मुँह में टांग कर घूमती है। मैं भी निश्चिन्त थी कि तुम आओगे ही, तुम्हें क्या पकड़ना...।" (मार्जारी भाव)

राम मुस्कुराकर रह गए!!

भीलनी ने पुनः कहा- "सोच रही हूँ बुराई में भी तनिक अच्छाई छिपी होती है न... “कहाँ सुदूर उत्तर के तुम, कहाँ घोर दक्षिण में मैं!" तुम प्रतिष्ठित रघुकुल के भविष्य, मैं वन की भीलनी।  यदि रावण का अंत नहीं करना होता तो तुम कहाँ से आते..?”

राम गम्भीर हुए और कहा-

भ्रम में न पड़ो मां! “राम क्या रावण का वध करने आया है..?”

रावण का वध तो लक्ष्मण अपने पैर से बाण चलाकर भी कर सकता है।

राम हजारों कोस चलकर इस गहन वन में आया है, तो केवल तुमसे मिलने आया है मां, ताकि “सहस्त्रों वर्षों के बाद भी, जब कोई भारत के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा करे तो इतिहास चिल्ला कर उत्तर दे, कि इस राष्ट्र को क्षत्रिय राम और उसकी भीलनी माँ ने मिलकर गढ़ा था।” 

"जब कोई भारत की परम्पराओं पर उँगली उठाये तो काल उसका गला पकड़कर कहे कि नहीं! यह एकमात्र ऐसी सभ्यता है जहाँ, एक राजपुत्र वन में प्रतीक्षा करती एक वनवासिनी से भेंट करने के लिए चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार करता है।"

राम वन में बस इसलिए आया है, ताकि “जब युगों का इतिहास लिखा जाए, तो उसमें अंकित हो कि "शासन/प्रशासन और सत्ता" जब पैदल चलकर वन में रहने वाले समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचे, तभी वह रामराज्य है।”
(अंत्योदय)

राम वन में इसलिए आया है,  ताकि भविष्य स्मरण रखे कि प्रतीक्षाएँ अवश्य पूरी होती हैं। राम रावण को मारने भर के लिए नहीं आया है माँ!

माता शबरी एकटक राम को निहारती रहीं।

राम ने फिर कहा-

राम की वन यात्रा रावण युद्ध के लिए नहीं है माता! “राम की यात्रा प्रारंभ हुई है, भविष्य के आदर्श की स्थापना के लिए।”

"राम राजमहल से निकला है, ताकि “विश्व को संदेश दे सके कि एक माँ की अवांछनीय इच्छओं को भी पूरा करना ही 'राम' होना है।”

"राम निकला है, ताकि “भारत विश्व को सीख दे सके कि किसी सीता के अपमान का दण्ड असभ्य रावण के पूरे साम्राज्य के विध्वंस से पूरा होता है।”

"राम आया है, ताकि “भारत विश्व को बता सके कि अन्याय और आतंक का अंत करना ही धर्म है।”

"राम आया है, ताकि “भारत विश्व को सदैव के लिए सीख दे सके कि विदेश में बैठे शत्रु की समाप्ति के लिए आवश्यक है कि पहले देश में बैठी उसकी समर्थक सूर्पणखाओं की नाक काटी जाए और खर-दूषणों का घमंड तोड़ा जाए।”

और

"राम आया है, ताकि “युगों को बता सके कि रावणों से युद्ध केवल राम की शक्ति से नहीं बल्कि वन में बैठी शबरी के आशीर्वाद से जीते जाते है।”

शबरी की आँखों में जल भर आया था।
उसने बात बदलकर कहा-  "बेर खाओगे राम..,?” 

राम मुस्कुराए, "बिना खाये जाऊंगा भी नहीं मां!"

शबरी अपनी कुटिया से झपोली में बेर लेकर आई और राम के समक्ष रख दिये।

राम और लक्ष्मण खाने लगे तो कहा- 
"बेर मीठे हैं न प्रभु..?” 

"यहाँ आकर मीठे और खट्टे का भेद भूल गया हूँ मां! बस इतना समझ रहा हूँ कि यही अमृत है।”

सबरी मुस्कुराईं, बोली-   "सचमुच तुम मर्यादा पुरुषोत्तम हो, राम!"

मर्यादा-पुरुषोत्तम भगवान श्री राम को बारंबार सादर  वंदन……॥

🇮🇳  राजेश राष्ट्रवादी

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