आरोह भाग-1, कक्षा-11, पाठ- गजल, सप्रसंग व्याख्या, प्रश्नोत्तर पाठ :- गजल कवि:- दुष्यंत कुमार ************...
आरोह भाग-1,
कक्षा-11,
पाठ- गजल,
सप्रसंग व्याख्या,
प्रश्नोत्तर
पाठ :- गजल
कवि:- दुष्यंत कुमार
*****************************************
(1)
कहाँ तो तय था चिराग हरेक घर के लिए,
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।
प्रसंगः-- प्रस्तुत शेर दुष्यंत कुमार द्वारा रचित है। यह गजल उनकी 'साये में धूप' गजल संग्रह में संकलित है। इसमें कवि ने राजनैतिक सामाजिक अव्यवस्था को समाप्त कर कोई नया विकल्प खोजने के बारे में विचार किया है।
व्याख्या:-- कवि राजनैतिक अव्यवस्था के बारे में वर्णन करता हुआ कहता है कि देश की आजादी को प्राप्त कर लेने के बाद यह तय हुआ था कि प्रत्येक घर को रोशनी देने के लिए सुख-सुविधा रूपी चिराग निश्चित रूप से प्रदान किए जाएंगे। परंतु आज तो स्थिति यह बन गई है कि घर तो क्या पूरे शहर को रोशनी देने के लिए एक चिराग भी उपलब्ध नहीं है। कवि कहना चाहता है कि घरों को विभिन्न प्रकार की सुख-सुविधाएँ उपलब्ध करवाने के आश्वासन दिए गए थे परंतु वे तो केवल आश्वासन ही सिद्ध हुए। दो चार घरों को तो बात दूर, पूरे के पूरे शहर को ही जीने के लिए सुख-सुविधाएं नहीं मिल पाई हैं। राजनीतिज्ञ बड़े-बड़े सपने तो जनता को दिखाते हैं पर वे जनता को सिवाय भुलावे और धीरज के कुछ नहीं देते।
*****************************************
(2)
यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है,
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।
व्याख्या:-- कवि दुष्यंत जी वर्णन कर रहे हैं कि वृक्षों को इसलिए लगाया गया था कि धूप न लगे। परंतु आज उन्हीं वृक्षों की छाया में धूप लगने लगी है। कवि चाहता है कि अब यहाँ से सदा के लिए चले जाना ही बेहतर है। अर्थात कवि ने यहाँ राजनैतिक अव्यवस्था के विषय में कटाक्ष किया है। कि जनता को अनेक प्रकार की सुख-सुविधाएँ देने के लिए उपलब्ध करवाई गई थीं परंतु वही सुविधाएँ आज जनता के लिए दुख का पर्याय बन गई हैं । अदालतों की स्थापना न्याय के लिए, तो अस्पतालों की स्थापना चिकित्सा के लिए की गई थी। परंतु आज अदालतों में न्याय नहीं ह है। लोगों को अपनी सुविधाओं से ही दुखों की प्राप्ति होने लगी है। इसका कोई विकल्प तो निकलना ही चाहिए। जब अपने ही वृक्ष छाया देने की अपेक्षा धूप के ताप का अनुभव कराने लगें तो वहाँ से चले जाना ही बेहतर है। अर्थात राजनैतिक क्षेत्र से किसी भी प्रकार की कोई अपेक्ष रखना व्यर्थ है। नेताओं ने शासन सँभाला था जनता को सुख देने के लिए पर वही जनता के लिए दुखों का बड़ा कारण बनकर रह गए हैं।
******************************************
(3)
न हो कमीज़ तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए।
प्रसंग :-- प्रस्तुत पंक्तियाँ दुष्यंत कुमार जी द्वारा रचित गजल संग्रह 'साये में धूप' में से अवतरित हैं। कवि ने यहाँ सामाजिक और राजनैतिक अव्यवस्था प्रस्तुत पर चोट को है। कवि का मानना है कि जनता से वायदे तो बड़े-बड़े किए जाते हैं पर उन्हें पूरा नहीं किया जाता। जनता भी विद्रोह करने की अपेक्षा चुपचाप अन्याय सहती है।
व्याख्या:-- गजल की विधा को दुष्यंत कुमार जी कहते हैं कि लोगों को यदि उपयुक्त सुविधाएँ नहीं मिलतीं तो वे विरोध किए बिना अभावों में जीना सीख लेते हैं। यदि इन्हें पेट डकने के लिए कमीज़ उपलब्ध नहीं हो पाती तो ये भोले लोग अपने पाँवों से ही अपने पेट को ढक लेंगे। वास्तव में अव्यवस्था की इस यात्रा के लिए तो ऐसे ही लोग उपयुक्त हैं। अर्थात अव्यवस्था का साम्राज्य तभी चल सकता है जब कोई उसके विरुद्ध आवाज न उठाए। यदि लोग राजनैतिक क्षेत्र में फैले भ्रष्टाचार आदि बुराइयों के खिलाफ़ आवाज बुलंद नहीं करेंगे तब तक उन्हें अभावों में ही जीना पड़ेगा और अव्यवस्था का राज्य फलता-फूलता जाएगा। कवि ने संकेत किया है कि नेताओं के द्वारा जनता की गरीबी हटाने के कितने ही प्रयत्न किए जाते हैं पर सब खोखले सिद्ध होते हैं। जनता अभावों में ही जीना सीख जाती है।
*******************************************
(4)
खुदा नहीं, न सही, आदमी का ख्वाब सही,
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए।
प्रसंग:-- प्रस्तुत पंक्तियों दुष्यंत कुमार द्वारा रचित गजल 'साये में धूप' में से अवतरित हैं। यहाँ कवि ने आज के प्रतिकूल परिस्थितियों वाले वातावरण में सभी मानवीय गुणों से संपन्न मानव के सपने की कल्पना की है।
व्याख्या:-- इस पद्यांश में दुष्यंत कुमार जी कहते हैं कि आज चारों ओर प्रतिकूल परिस्थितियाँ दिखाई देती हैं जिनसे मानव में निराशा व्याप्त हो रही है। दया, क्षमा, त्याग, परोपकार जैसे गुणों से संपन्न तो केवल ख़ुदा है जिसमें कोई दोष नहीं है। वह धरती पर उतर कर नहीं आ सकता परंतु हम ये सपना तो देख ही सकते हैं कि उसके बनाए मानव में भी एक दिन ये सभी गुण समाहित हो जाएँगे। निराश मानव के लिए तो एक आशा को किरण ही काफ़ी होती है। दया, क्षमा, त्याग परोपकार आदि गुणों से विभूषित मनुष्य की परिकल्पना अपने आप में एक ऐसा सुखद एहसास है। जो जीवन जीने के लिए आशा प्रदान करता है। आदमी के लिए आज के भ्रष्टाचार, बेईमानी के प्रतिकूल वातावरण में यह खूबसूरत सपना हो जाने का सहारा है कि एक दिन मानव में सभी मानवीय गुण पैदा हो जाएँगे तो परिस्थितियाँ अपने आप सुधर जाएँगी।
********************************************
(5)
वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिंघल नहीं सकता,
मैं बेकरार हूँ आवाज में असर के लिए।
प्रसंगः-- प्रस्तुत शेर दुष्यंत कुमार द्वारा रचित गजल 'साये में धूप' में से अवतरित है। इन पंक्तियों में कवि कहना चाहते हैं कि आज चारों ओर फैलो राजनैतिक और सामाजिक अव्यवस्था देखकर जनता को इनके कभी न बदलने का विश्वास हो चला है परंतु इसके लिए निराश होने की नहीं बल्कि विद्रोह की आवश्यकता है।
व्याख्या :-- कवि दुष्यंत जी को लगता है कि राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्र में फैली बुराइयों, भ्रष्टाचार, बेईमानी आदि के साथ रह-रहकर जनता अब इनकी आदी हो गई है। उन्हें विश्वास हो चला है कि ये समस्याएँ अब समाप्त नहीं होंगी। जिस प्रकार पत्थर का पिघलना संभव नहीं है उसी प्रकार अब परिस्थितियों का बदलना भी संभव नहीं है। कवि कहता है कि बदलती परिस्थितियों को देखने के लिए वह बेचैन है परंतु आवाज में असर हो तब परिस्थितियाँ बदल सकती हैं अर्थात अभिप्राय यह है कि समस्याओं के समाधान के लिए विद्रोहभरे स्वर की आवश्यकता है। समस्याओं का विरोध कर उन्हें अस्वीकारने की जरूरत है, न कि उनके साथ रहकर जीवन जीने की आदत डालने की। जो जनता पर अत्याचार करता है उसके विरोध में जनता को आवाज अवश्य उठानी चाहिए तभी परिवर्तन हो सकेगा।
*****************************************
(6)
तेरा निज़ाम है सिल दे जुबान शायर की,
ये एहतियात जरूरी है इस बहर के लिए।
प्रसंग:-- प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘साये में धूप' में से अवतरित हैं। इस गज़ल के रचयिता दुष्यंत कुमार जी हैं। कवि समाज में फैली बुराइयों को देखकर दुखी हैं। वे इसके खिलाफ़ आवाज उठाना चाहते हैं। पर वे जानते हैं कि उनकी आवाज को दबा दिया जाएगा।
व्याख्या:-- शायर दुष्यंत जी राजनैतिक-सामाजिक अव्यवस्था के लिए जनता की ओर से आवाज उठाते हैं। उनकी आवाज को दबाने के प्रयास किए जा रहे हैं इसलिए वे कह उठते हैं कि हे शासक! तेरा राज्य है तू चाहे तो शायर की आवाज़ को सिल सकता है अर्थात शासक की इच्छा से विद्रोह के स्वर को दबाया जा सकता है। जैसे गज़ल के छंद के लिए बंधन की सावधानी जरूरी हैं वैसे शासक भी अपने राज्य को कायम रखने के लिए आवाज को दबाने की सावधानी रखने का तरीका अपनाएगा। शासक की पूरी कोशिश रहेगी कि अकेले व्यक्ति की आवाज को दबा लिया जाए तो विद्रोह का स्वर न उठे और उसका शासन चलता रहे।
********************************************
(7)
जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले,
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।
प्रसंगः- प्रस्तुत पंक्तियाँ दुष्यंत कुमार जी द्वारा रचित गजल 'साए में धूप' में से अवतरित हैं। दुष्यंत कुमार जी यहाँ राजनैतिक- सामाजिक व्यवस्था से परेशान आम आदमी के मन की इच्छा को इस शेर के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं।
व्याख्या:-- कवि कहता है कि हम जब तक जिएँ अपने ही घर, अपने ही देश रूपी बगीचे में गुलमोहर रूपी बुजुगों और वृक्षों की छाया में ही जीवन बिताएँ। जीवन की राह में आने वाली समस्याओं से घबराकर कभी न भागें। यदि हम मरें भी तो दूसरों की सहायता करते हुए, परोपकार की राह पर अपना जीवन त्यागें। हम दूसरों के अधिकार रूपी गुलमोहर की रक्षा के लिए अपने प्राण त्यागें ।
****************************************
पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तरः--
गजल के साथ:--
प्रश्न 1. आखिरी शेर में गुलमोहर की चर्चा हुई है। क्या उसका आशय एक खास तरह के फूलदार वृक्ष से है या उसमें कोई सांकेतिक अर्थं निहित है? समझाकर लिखें।
उत्तर:-- निश्चित रूप से गुलमोहर ग्रीष्म ऋतु में लहलहानेवाला फूलदार वृक्ष है पर कवि ने इसके द्वारा सांकेतिक अर्थ को प्रकट किया है। यह घना छायादार पेड़ अपने घर, नगर और देश का प्रतीक है जो हमारे जीवन के आधार हैं। यह परायों के सुखों और जीवन का भी प्रतीक है। हम अपना जीवन जीते हुए दूसरों के जीवन को सुखमय बनाएँ ऐसा कवि चाहता है।
प्रश्न 2. पहले शेर में 'चिराग' शब्द एक बार बहुवचन में आया है और दूसरी बार एकवचन में अर्थ एवं काव्य-सौंदर्य की दृष्टि से इसका क्या महत्व है?
उत्तर:-- कवि ने पहले शेर में 'चिरागों' शब्द का बहुवचन रूप में प्रयोग किया है जो हर घर को सरकार की ओर से दिए जानेवाली सुख-सुविधाओं का योतक है। दूसरी बार कवि ने 'चिराग' शब्द का एकवचन में प्रयोग किया है जो जनता को सुख-आराम प्रदान करनेवाली केंद्रीय सत्ता कर बोध कराता है। सरकार का कार्य है कि वह जनता को सुख-सुविधाएँ प्रदान कराने की व्यवस्था करे पर सरकार हो ऐसी नहीं है जो ऐसा कर सके। कवि ने एक ही शब्द का प्रतीकात्मक और लाक्षणिक प्रयोग करके अपनी कल्पना क्षमता का अद्भुत परिचय दिया है।
प्रश्न 3. गजल के तीसरे शेर को गौर से पढ़ें। यहाँ दुष्यंत का इशारा किस तरह के लोगों की ओर है?
उत्तर:-- कवि ने इस शेर में उन लोगों की तरफ संकेत किया है जो किसी भी स्थिति को सहज रूप से स्वीकार कर लेने को तैयार रहते हैं। अन्याय होने पर भी वे विरोध का स्वर ऊँचा नहीं करते बल्कि उस अन्याय को अपना भाग्य मान लेते हैं।
No comments