क्षितिज, कक्षा-10, सूरदास के पद, व्याख्या, प्रश्नोत्तर पाठ-1 सूरदास के पद पहला -पद सं...
क्षितिज,
कक्षा-10,
सूरदास के पद,
व्याख्या,
प्रश्नोत्तर
पाठ-1 सूरदास के पद
पहला -पद
संकेत:-- ऊधौ........................ ज्यौं न पागी ।
व्याख्या:-- मथुरा जाने के पश्चात् श्री कृष्ण को ब्रज के कण-कण, गोपियों तथा राधा व यशोदा-नंद की याद सताती है। श्री कृष्ण अपने परम सखा उद्धव, जो ज्ञान-मार्ग के सिद्धांतों के समर्थक थे, को ब्रज भेजते हैं। श्री कृष्ण जानते थे कि उद्धव के ज्ञान पर गोपियों के निश्छल प्रेम का अवश्य प्रभाव पड़ेगा। गोकुल में उद्धव का आदर-सत्कार तो हुआ, परंतु उनके ज्ञान-मार्ग और योग-साधना की बातें सरल हृदय वाली गोपियों की कड़वी लगती हैं।
ब्रज में उद्धव श्री कृष्ण का संदेश सुनाते हुए गोपियों को निर्गुण ब्रह्म का उपदेश देकर कृष्ण को भुलाने की सलाह देते हैं। उद्धव को लक्ष्य करती हुई गोपियाँ व्यंग्य बाण छोड़ती हुई कहती हैं कि हे उद्धव आप बड़े भाग्यवान हैं, जो प्रेम के धागे के फंदे में नहीं फँसे आपका मन प्रेम के वशीभूत नहीं है। जो प्राणी प्रेम के बंधन में फँस जाता है, उसे कहीं भी चैन नहीं मिलता। आपकी स्थिति तो कमल के पत्ते की तरह है, जो जल में रहता है, परंतु उसपर जल का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। रात-दिन श्री कृष्ण के साथ रहते हुए भी उद्धव उनके प्रेम से अप्रभावित ही रहे, अर्थात् उनके रंग में नहीं रंगे, बल्कि निर्लिप्त हैं। यही कारण है कि उद्धव को कोई कष्ट व दुख नहीं सहना पड़ता। वे तो तेल की गागर की तरह है, जिसे जल के मध्य भी रख दिया जाए तो उसपर पानी की बूंदों का कोई असर नहीं पड़ता। उद्धव का मन भी तल की तरह चिकना है, जिसपर प्रेम जल कोई प्रभाव नहीं डालता। ये धन्य हैं, जिन्होंने प्रेम रूपी नदी में पाँव नहीं डुबोया तथा उनकी दृष्टि किसी भी रूप पर मोहित नहीं हुई, अर्थात् किसी का प्रेममय रूप उनकी आँखों में नहीं बसा ये किसी पर मुग्ध नहीं हुए।
सूरदास जी कहते हैं कि गोपियाँ उद्धव जी से कहने लगीं कि हम तो भोली-भाली सरल हृदय अबला है। जिस प्रकार चींटी गुड़ से लिपटती है, उसी प्रकार हम कृष्ण के प्रेम में अनुरक्त हैं। गुड़ के प्रति चींटी को आसक्ति होती है, उसी तरह गोपियाँ कृष्ण प्रेम में पूर्ण रूप से आसक्त हैं। कृष्ण के वियोग में उनकी दशा दयनीय व असहनीय हो गई है। उद्धव भाग्यशाली हैं, जो निर्लिप्त व अनासक्त हैं।
काव्य-सौन्दर्य
• उपर्युक्त काव्यांश में गोपियों के प्रेम की सन्मयता का साकार चित्र उपस्थित हुआ
• शृंगार रस के अंतर्गत गोपियों के विरह की 'वियोग श्रृंगार' के रूप में मार्मिक अभिव्यक्ति हुई हैं।
• ग्रामीण ब्रजभाषा के प्रयोग में सूरदास सिद्धहस्त हैं।
• 'प्रीति-नदी' में रूपक अलंकार है।
• प्रस्तुत पद में उपमा अलंकार की छटा दर्शनीय है-
--'पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।'
-- "ज्यों जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकी लागी।'
--'गुर चाँटी ज्यों पागी।'
• 'पुरइनि पात' में 'प' की आवृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार है।
• 'ऊधौ, तुम ही अति बड़भागी।' वक्रोक्ति अलंकार ।
• काव्यांश में माधुर्य गुण की छटा देखने योग्य है।
• गोपियों द्वारा उद्धव को परास्त करने के लिए प्रयुक्त वक्रोक्तिपूर्ण कथन उनके वाक्चातुर्य को दर्शाते हैं।
कवि की कल्पना-शक्ति अनूठी है।
• संगीतात्मकता के कारण लय व तुक का समन्वय मिलता है।
दूसरा - पद
संकेत:-- मन की मन ही.................... मरजादा न लही।
व्याख्या:-- गोपियाँ अपने मन की पीड़ा को अभिव्यक्त करती हुई उद्धव जी से कहती हैं कि अनेक बातें, जो कृष्ण से कहनी थीं, मन में ही रह गई। अद ये सारी बातें किसे जाकर कहें? कृष्ण के आगमन के विश्वास पर उन्होंने इतने समय तक शरीर और मन की पीड़ा सहन की। कृष्ण तो नहीं आए, पर उद्धव के योग संदेश को सुन-सुनकर वियोग में जीने वाली गोपियाँ विरह की आग में जल रही हैं। वे चाहती थी कि अपनी विरहालि को दूर करने के लिए, रक्षा के लिए, कृष्ण को पुकारें। पर जहाँ से आशा थी, उधर से योग की प्रबल धारा बहने लगी। उस चारा ने गोपियों की विरहारिन में घी का काम किया। अर्थात् उद्धव तो ज्ञान-योग का संदेश लेकर गोपियों को शांत करने आए थे, पर गोपियों की विरहारिन श्री तीव्र हो गई। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियाँ कहने लगीं कि वे अब धैर्य धारण क्यों करें? कृष्ण ने तो मर्यादा नहीं रखी।
प्रस्तुत पद में गोपियों की यह स्वीकारोक्ति कि उनके मन की अभिलाषाएँ मन में ही रह गई, कृष्ण के प्रति उनके प्रेम की गहराई को अभिव्यक्त करती है।
काव्य-सौंदर्य
• इस काव्यांश में कृष्ण के प्रति गोपियों के प्रेम की गहराई अभिव्यक्त हुई है।
• गोपियों की वाग्विदग्धता की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है।
• 'सुनि सुनि' में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
• कृष्ण और गोपियों का प्रेम सहज मानवीय प्रेम की प्रतिष्ठा करता है।
• वक्रोक्ति अलंकार है।
तीसरा -पद
संकेत:-- हमारैं हरि हारिल की.............. मन चकरी।
व्याख्या:- उद्धव व्रज में निर्गुण ब्रह्म और योग का संदेश लेकर आए हैं। श्री कृष्ण जानते हैं कि गोपियों का प्रेम गंभीर व अलोकिक है। गोपियों का प्रेम मार्ग ही उद्धव के निर्गुण निराकार के ज्ञान को हरा सकता है। निर्गुण भक्ति पर सगुण भक्ति की विजय दिखलाना कवि का अमीष्ट लक्ष्य रहा है। योग मार्ग को हर दृष्टि से हेय बताकर गोपियाँ अपनी बात पर दृढ़ रहकर सगुण की उपासना को महत्व देती हुई कहती है कि कृष्ण तो उनके लिए हारिल पक्षी की लकड़ी के समान हैं। जिस प्रकार हारिल पक्षी हर परिस्थिति में सहारे स्वरूप लकड़ी को अपने पतों में जकड़े रहता है, कभी छोड़ता नहीं, उसी प्रकार श्री कृष्ण के प्रेम को उन्होंने दृढ़ता के साथ पकड़ रखा है, क्योंकि यही उनके जीवन के एकमात्र सहारे हैं। गोपियों ने मन, वचन और कर्म से नंद बाबा के पुत्र कृष्ण को अपने हृदय में हमेशा के लिए बसा लिया है। ये ही उनके जीवन के एकमात्र अवलंब हैं। यहाँ तक कि प्रत्येक अवस्था में उन्हें कृष्ण की ही रट लगी रहती है। रात-दिन अर्थात् जागते हुए (जाग्रतावस्था) साते हुए (सुप्तावस्था) और तो और स्वप्न (स्वप्नावस्था) में भी कृष्ण के नाम को ही जकड़ा हुआ है, अर्थात् सदा स्मरण करती रहती हैं। किसी भी स्थिति तथा अवस्था में एक क्षण भी गोपियों कृष्ण से विलग नहीं होतीं। उद्धव के मुख से योग का उपदेश सुनकर उन्हें ऐसा प्रतीत होता है, मानों कड़वी ककड़ी खा ली हो। वे उद्धव जी को संबोधित करते हुए कहती हैं कि वे योगरूपी व्याधि (बीमारी) ले आए, जिसे न कभी देखा और न कभी कानों से सुना और न कभी भोगा। गोपियों कृष्ण के विरह में दुखी हैं, अतः निर्गुण ब्रह्म का उपदेश उन्हें बीमारी-सा प्रतीत होता है। सूरदास जी कहते हैं कि अंत में गोपियाँ अपने मन के उद्गारों को व्यक्त करती हुई उद्धव जी से कहती हैं कि इस योग की चर्चा उनसे (कृष्ण से) जाकर करो, जिनका मन चकरी के समान चंचल है। अस्थिर व चंचल प्रवृत्ति वाले ही तुम्हारे उपदेश सुन मन को स्थिर कर निर्गुण ब्रह्म की उपासना करेंगे। गोपियाँ तो कृष्ण के प्रेम में अपने मन को स्थिर कर चुकी हैं। अतः निराकार की चर्चा व्यर्थ है। इस प्रकार से गोपियों विभिन्न तर्क देकर स्वयं को निर्गुण ब्रह्म की आराधना करने में असमर्थ सिद्ध करती हैं। ये उद्धय की योग-साधना की कड़वी ककड़ी जैसा बताकर अपने एकनिष्ठ प्रेम में दृढ़ विश्वास प्रकट करती हैं।
काव्य-सौंदर्य
• ब्रजभाषा का माधुर्य है।
• 'कान्ह कान्ह में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
• उपमा अलंकार की छटा- 'हारिल की लकरी'
• गोपियाँ वाक्पटु व तर्कशील हैं- यह कवि की मौलिक उद्भावना है।
• उत्प्रेक्षा अलंकार- सुनत जोग लागत है ऐसी, ज्यों करुई ककरी,
• गीति-तत्व है।
• अनुप्रास अलंकार- 'करुई ककरी' ('का वर्ण की आवृत्ति), 'हमारे हरि हारिल (ह' वर्ण की आवृत्ति) 'नंद-नंदन ('न' वर्ण की आवृत्ति)
चौथा पद
संकेत:- हरि है राजनीति ........... जाहिं सताए ।।
व्याख्या:-- प्रस्तुत पद में गोपियाँ उद्धव जी को 'मधुकर अर्थात् भौंरा कहकर संबोधित करती है, क्योंकि भौंरा क्या जाने प्रेम का स्वरूप उद्धव जी मुख से योग का उपदेश सुन-सुनकर गोपियों खीझ उठती हैं। गोपियों को ज्ञान विषयक यह चर्चा कष्टदायी प्रतीत होती है। उद्धव जी सुनाते हुए एक गोपी दूसरी गोपी से कहती है कि सुना है, श्री कृष्ण जी अब राजनीति सीख गए है। मधुकर (उद्धव) की बात को अच्छे तरह से समझ लिया है। उनकी निर्गुण निराकार की चर्चा से यह सहज ही अनुमान लग जाता है कि अब श्री कृष्ण भी उद्धव के सान्निध्य में रहकर किस प्रकार की बातें करने लगे हैं। उनकी बुद्धि का परिचय इसी से लग जाता है कि उन्होंने स्त्रियों के लिए योग-साधना का उपदेश कहलाकर भेजा है। हे सखी। पहले के लोग बहुत भले और सीधे होते थे, जो दूसरों के हित के लिए दौड़ते-फिरते थे। इस कथन के माध्यम से गोपियाँ उद्धव पर परोक्ष रूप से व्यंग्य कर रही हैं कि उद्धव ऐसे ही लोगों में से एक हैं, जो गोपियों का भला करने इतनी दूर दौड़े चले आए हैं। गोपियों श्री कृष्ण से इतनी ही विनती करती हैं कि वे उनके मन लौटा दें, जो उन्होंने चलते समय चुराए थे। भाव यह है कि मन तो गोपियों के पास है ही नहीं, क्योंकि उस मन को तो श्री कृष्ण उसी समय मथुरा ले गए, जब वे स्वयं अक्रूर जी के साथ गए थे। यह तो आश्चर्य की बात है कि जो श्री कृष्ण दूसरों को अनीति करने से रोकते हैं, वे स्वयं अनीति की बात कैसे कर सकते हैं? सुरदास जी कहते हैं कि गोपियों आपस में कह रही हैं कि राजधर्म तो यही है कि राजा अपनी प्रजा को न सताए। गोपियों को इस तरह दुखी करके श्री कृष्ण कैसा राजधर्म निभा रहे हैं।
काव्य-सौंदर्य
उद्धव जी के माध्यम से श्री कृष्ण को भी उपालंभ दिया गया है। गोपियाँ उद्धव को ताना मारती हैं कि कृष्ण ने अब राजनीति पढ़ ली है। गोपियों द्वारा उद्धव जी को राजधर्म (प्रजा का हित ) याद दिलाया जाना सूरदास की लोकधर्मिता को दर्शाता है।
'बढ़ी-बुद्धि' व 'चलत- चुराए' में अनुप्रास अलंकार है।
• गोपियों का तर्क पठनीय है।
• संपूर्ण पद में ब्रज भाषा का माधुर्य दृष्टिगोचर होता है।
• महाकवि सूरदास ने जोग (योग), संदेस (संदेश) जैसे- शब्दों के प्रयोग से ब्रज की सुकोमलता को उभारा है।
• व्यंग्यात्मक शैली में बात कहने से कथन प्रभावशाली हो उठे हैं। संगीतात्मक शैली के कारण हर शब्द संगीतमय हो उठा है।
पाठ्य पुस्तक प्रश्न
प्रश्न 1. गोपियों द्वारा उद्धव को भाग्यवान कहने में क्या व्यंग्य निहित है?
उत्तरः- गोपियों के अनुसार कृष्ण के निकट रहकर प्रेम के महत्त्व तथा वियोग की पीड़ा को समझ न पाना उद्धव का दुर्भाग्य है, किंतु 'अतिथि देवो भव' परंपरा का निर्वाह करते हुए शिष्टाचार वश वे प्रत्यक्ष रूप से उद्धव को कटुवचन न कहकर व्यंग्य का सहारा लेती हैं। वे प्रत्यक्ष रूप से उद्धव को भाग्यशाली कहकर प्रशंसा करती हैं, पर प्रेम के आनंद से वंचित उद्धव निपट अभागे हैं, क्योंकि वे श्री कृष्ण के सान्निध्य में रहकर भी उनके प्रेम से वंचित हैं।
प्रश्न 2. उद्धव के व्यवहार की तुलना किस-किस से की गई है?
उत्तर:- उद्धव के व्यवहार की तुलना जल में निमग्न रहकर भी उससे निर्लिप्त रहने वाले कमल के पत्तों से तथा जल-बूँदों से अप्रभावित रहने वाली तेल की गागर से की है। इस पर पानी की बूँदों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
प्रश्न 3. गोपियों ने किन-किन उदाहरणों के माध्यम से उद्धव को उलाहने दिए हैं?
उत्तरः- ज्ञानी उद्धव बड़े विश्वास के साथ गोपियों की विरहाग्नि शांत करने और उन्हें निर्गुण ब्रह्म तथा योग साधना का संदेश देकर उनकी सहायता करने आए थे, लेकिन गोपियों ने उन्हीं पर व्यंग्य की बौछार कर दी। जल में रहने वाले कमल के पत्ते तथा तेल की गागर की तरह उद्धव पर भी श्री कृष्ण के प्रेम का प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने अपने नीरस स्वभाव के कारण कृष्ण-प्रेम रूपी नदी में स्वयं को निमग्न नहीं किया इसलिए वे व्यंग्य रूप में उन्हें भाग्यशाली कहकर उनका उपहास करती हैं। गोपियों के अनुसार योग-संदेश के योग्य वही हो सकता है, जिसका मन चकरी की तरह चंचल तथा अस्थिर हो।
प्रश्न 4. उद्धव द्वारा दिए गए योग के संदेश ने गोपियों की विरहाग्नि में घी का काम कैसे किया?
उत्तर:- एक तो पहले ही गोपियाँ कृष्ण के वियोग में विरहाग्नि में जल रही थीं। उद्धव ने ज्ञान योग का संदेश देकर उनकी विरहाग्नि को बढ़ाकर उसमें घी डालने का काम किया। उद्धव के योग संदेश से गोपियों की विरहारिन बढ़ गई, क्योंकि उन्हें विश्वास हो गया कि अब श्री कृष्ण उनके पास नहीं आएंगे। उनकी आशा की डोर टूटने के कारण वे व्याकुल हो गई।
प्रश्न 5. 'मरजादा न सही' के माध्यम से कौन-सी मर्यादा न रहने की बात की जा रही है?
उत्तर:- गोपियों ब्रज में कृष्ण के आने का इंतजार, धैर्य धारण करके करती रहीं, पर कृष्ण ने स्वयं न आकर उद्धव को भेज दिया। इससे गोपियों की सहनशीलता जवाब दे गई। वे कहने लगीं कि वे अब धैर्य धारण क्यों करें? कृष्ण ने भी तो स्वयं न आकर उद्धव को भेजकर प्रेम की मर्यादा का पालन नहीं किया। मर्यादा तो यह कहती है कि कृष्ण को गोपियों का दुख दूर करने स्वयं आना चाहिए। था, किंतु उन्होंने उद्धव को भेजकर प्रेम की मर्यादा का उल्लंघन किया है।
प्रश्न 6. कृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम को गोपियों ने किस प्रकार अभिव्यक्त किया है?
उत्तरः- गोपियों का प्रेम गंभीर व अलौकिक है । उन्होंने अपने प्रेम-मार्ग के द्वारा ही निर्गुण निराकार के ज्ञान को हरा दिया। कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम को गोपियों ने 'हारिल पक्षी' का उदाहरण देकर अभिव्यक्त किया है। वे हारिल पक्षी की तरह कृष्ण-प्रेम रूपी लकड़ी को दृढ़ता से थामे हुए हैं। वे दिन-रात, सोते-जागते कृष्ण नाम ही रटती रहती हैं। इस प्रकार उनका मन तो कृष्ण-प्रेम में स्थिर हो चुका है। गोपियों का प्रेम एकनिष्ठ तथा दृढ़ है। कृष्ण के प्रति गोपियों के प्रेम में गहराई है। प्रेम की इसी अनन्यता के कारण ही उद्धव के योग-संदेश को 'कड़वी ककड़ी' और 'व्याधि' कहकर उसे भ्रमित बुद्धि वालों को सौंप देने की बात कहती हैं।
प्रश्न 7. गोपियों ने उद्धव से योग की शिक्षा कैसे लोगों को देने की बात कही है?
अथवा
गोपियाँ योग संदेश को कैसे लोगों के लिए उपयुक्त मानती हैं?
उत्तर:- गोपियों ने उद्धव से योग की शिक्षा ऐसे लोगों को देने की बात कही है, जो स्थिर मन वाले नहीं हैं, जिनका मन चकरी के समान चंचल है। अस्थिर व चंचल प्रवृत्ति वाले ही उद्धव के उपदेश को सुनकर मन को स्थिर कर निर्गुण ब्रह्म की उपासना करेंगे।
प्रश्न 8. प्रस्तुत पदों के आधार पर गोपिया का योग- साधना के प्रति दृष्टिकोण स्पष्ट करें ।
उत्तर:- उद्धव ने निर्गुण ब्रह्म और योग का उपदेश देकर गोपियों की विरह-वेदना को शांत करने का प्रयास किया, लेकिन गोपियों को उद्धव का योग-संदेश शुष्क व नीरस लगा। योग की प्रबल धारा ने गोपियों की विरहाग्नि में घी का काम किया। उन्हें योग-संदेश कड़वी ककड़ी के समान लगा तथा निर्गुण ब्रह्म का उपदेश बीमारी-सा लगा। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि गोपियों का योग साधना के प्रति दृष्टिकोण निम्न ही रहा।
प्रश्न 9. गोपियों के अनुसार राजा का धर्म क्या होना चाहिए?
उत्तर:- गोपियों के कथनानुसार सच्चा राजधर्म यहीं है कि राजा की प्रजा सतायी न जाए, उसके कष्टों को बढ़ाया न जाए, लेकिन उद्धव के हाथों जो निर्गुण ब्रह्म तथा योग साधना का संदेश आया, उससे तो गोपियों अधिक पीड़ित व आहत हुई हैं। गोपियों को इस तरह दुखी करके श्री कृष्ण सही राजधर्म नहीं निभा रहे हैं।
प्रश्न 10. गोपियों को कृष्ण में ऐसे कौन-से परिवर्तन दिखाई दिए जिनके कारण वे अपना मन वापस पा लेने की बात कहती हैं?
उत्तर:- गोपियों के अनुसार कृष्ण बिलकुल बदल गए हैं। वे व्रज, ब्रज के लोगों तथा गोपियों से प्रेम करते थे, लेकिन मथुरा जाते ही वे सब कुछ भूल गए। गोपियों को दर्शन न दिए तथा उन्हें योग-साधना अपनाने के लिए कहा। इन सभी परिवर्तनों के कारण गोपियों कृष्ण से अपना मन वापस लौटाने की बात कहती हैं।
प्रश्न 11. गोपियों ने अपने वाक्चातुर्य के आधार पर ज्ञानी उद्धव को परास्त कर दिया, उनके वाक्चातुर्य की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:- गोपियाँ श्री कृष्ण की याद में केवल रोती-तड़पती ही नहीं, अपितु मुसकराती भी हैं। वे उद्धव पर व्यंग्य करती हैं। उद्धव को अपने निर्गुण ज्ञान पर बहुत अभिमान था, परंतु गोपियों ने अपने वाक्चातुर्य से उन्हें परास्त कर दिया। उनके वाक्चातुर्य की कुछ विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
(i) गोपियाँ तर्कशील हैं, उनके तर्क अकाट्य हैं तथा वे अपने तकों के बल पर उद्धव की बोलती बंद कर देती हैं।
(ii) गोपियों निर्भीक हैं तथा वे किसी भी बात को कहने में झिझकती नहीं हैं।
(ii) गोपियों की वाणी में छिपा व्यंग्य बहुत प्रभावशाली है, जिससे वे अपने वाक्चातुर्य को धारदार बना देती हैं। गोपियाँ उद्धव को बड़भागी कहकर अपने कथन में व्यंग्य और वक्रोक्ति का ऐसा मिश्रित रूप प्रस्तुत करती हैं कि योग के पंडित उद्धव निरुतर हो जाते हैं।
प्रश्न 12. संकलित पदों को ध्यान में रखते हुए सूर के 'भ्रमरगीत' की मुख्य विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:- संकलित पदों के आधार पर सूर के 'भ्रमरगीत' की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
(i) 'भ्रमरगीत' प्रसंग में सूरदास ने गोपियों के मुख से सगुण का मंडन और उद्धव के निर्गुण का खंडन कराया है।
(ii) गोकुल में उद्धव का आदर-सत्कार तो हुआ, परंतु उनके ज्ञान-मार्ग और योग-साधना की बातें सरल हृदय वाली गोपियों
कड़वी लगती हैं।
(iii) भ्रमरगीत में गोपियों के प्रेम की तन्मयता का साकार चित्र उपस्थित हुआ है।
(iv) शृंगार रस के अंतर्गत गोपियों के विरह की 'वियोग शृंगार' के रूप में मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है।
(v) इसमें कृष्ण के प्रति गोपियों के प्रेम की गहराई प्रकट हुई है।
(vi) गोपियों की याग्विदग्धता की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है।
(iii) कृष्ण और गोपियों का प्रेम सहज मानवीय प्रेम की प्रतिष्ठा करता है।
No comments