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कक्षा-10, नेताजी का चश्मा, पाठ का सारांश, प्रश्नोत्तर

  पाठ -   नेताजी का चश्मा   लेखक:- श्री स्वयंप्रकाश जी                 पाठ का सारांश                         (1) कस्बे का सामान्य परिचय:-- ...

 पाठ -


 नेताजी का चश्मा

  लेखक:- श्री स्वयंप्रकाश जी

               पाठ का सारांश 

                       (1)

कस्बे का सामान्य परिचय:-- हालदार साहब को हर पंद्रहवें दिन कंपनी के काम के सिलसिले में एक कस्बे से गुजरना पड़ता था। कस्बा बहुत बड़ा न था। उसमें कुछ पक्के मकान, एक बाजार, लड़कों का एक स्कूल, लड़कियों का एक स्कूल, सीमेंट का एक छोटा-सा कारखाना,दो ओपन एयर सिनेमाघर और एक अदद नगर पालिका भी थी, जो कभी कोई सड़क पक्की करवा देती, कभी पेशाबघर, कभी कबूतरों की छतरी बनवा देती, तो कभी कवि सम्मेलन करवा देती। इसी नगर पालिका के किसी उत्साही बोर्ड या प्रशासनिक अधिकारी ने 'शहर' के मुख्य बाज़ार के मुख्य चौराहे पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस की एक संगमरमर की प्रतिमा लगवा दी यह कहानी उस प्रतिमा के एक छोटे से हिस्से के बारे में है।

लेखक को पूरी बात तो पता नहीं, लेकिन उन्हें लगता है कि देश के अच्छे मूर्तिकारों की जानकारी नहीं होने या अच्छी मूर्ति की अनुमानित लागत उपलब्ध बजट से कहीं ज़्यादा होने के कारण या बोर्ड की शासनावधि समाप्त होने की दशा में किसी स्थानीय कलाकार को ही अवसर देने का निर्णय किया गया होगा अंत में कस्बे के इकलौते हाई स्कूल के ड्राइंग-मास्टर मोतीलाल (काल्पनिक नाम) को ही यह काम सौंप दिया गया होगा, जिन्होंने महीने भर में मूर्ति बनाकर देने का विश्वास प्रकट किया होगा।

                                (2)

मूर्ति का अधूरापनः- मूर्ति संगमरमर की थी-टोपी की नोक से कोट के दूसरे बटन तक कोई दो फुट ऊंची सुंदर मूर्ति थी। फ़ौजी वर्दी में नेताजी सुंदर, मासूम और कमसिन लग रहे थे। मूर्ति को देखते ही 'दिल्ली चलो' और 'तुम मुझे खून दो...' आदि याद आने लगते थे। इस दृष्टि से यह सफल और सराहनीय कोशिश थी। मूर्ति में केवल एक कमी थी, जो देखते ही खटकती थी। नेताजी की आँखों पर संगमरमर का चश्मा नहीं था। एक साधारण और सचमुच के चश्मे का चौड़ा काला फ्रेम मूर्ति को पहना दिया गया था। कस्बे से गुज़रते समय हालदार साहब ने पहली बार जब इस मूर्ति को देखा, तो हैरान हुए। उन्होंने देखा कि मूर्ति तो पत्थर (संगमरमर) की थी, लेकिन चश्मा वास्तविक था। कस्बे से निकलने के बाद भी हालदार साहब मूर्ति के बारे में ही सोचते रहे। अंत में वे इस निर्णय पर पहुंचे कि कस्बे के नागरिकों का यह प्रयास सराहनीय है, महत्त्व मूर्ति के रंग-रूप या कद का नहीं, अपितु उस भावना का है, जिस भावना से उस मूर्ति को बनवाया गया, वरना देशभक्ति आजकल मज़ाक की वस्तु बनती जा रही है।

                                 (3)

हालदार साहब का कौतुक:-- दूसरी बार जब हालदार साहब उधर से गुज़रे, तो उन्हें मूर्ति में कुछ अंतर दिखाई दिया। ध्यान से देखने पर उन्हें पता चला कि चश्मा दूसरा है। पहले मोटे फ्रेम वाला चौकोर चश्मा था, अब तार के फ्रेमबाला गोल चश्मा है। उनके मन में विचार आया कि मूर्ति कपड़े नहीं बदल सकती, चश्मा तो बदल सकती है। तीसरी बार भी नया चश्मा था। अब तो हालदार साहब को आदत सी पड़ गई। कस्बे से गुज़रते हुए चौराहे पर रुकना, पान खाना और मूर्ति को ध्यान से देखना। एक बार हालदार साहब अपने आश्चर्य को रोक न पाए तो. पान वाले से पूछ लिया कि नेताजी का चश्मा हर बार कैसे बदल जाता है? पान मुंह में ठूँसे हुए, काला मोटा, खुश-मिज़ाज पानवाला पहले तो आँखों ही आँखों में हंसा उसकी तोंद थिरकी, पान थूका और अपने लाल काले दाँत दिखाकर बोला कि यह काम कैप्टन चश्मेवाला करता है। हालदार साहब जब पानवाले की बात समझ नहीं पाए, तो उसने समझाया कि जब किसी ग्राहक को चौड़े फ्रेम वाला चश्मा चाहिए तो वह कहाँ से लाएगा? उसको मूर्ति वाला दे दिया और मूर्ति पर दूसरा लगा दिया।

                                (4)

कैप्टन का देश-प्रेम- अब हालदार साहब की कुछ-कुछ समझ में आता है कि एक चश्मेवाला, जिसका नाम कैप्टन है, उसे नेताजी की बगैर चश्मेवाली मूर्ति बुरी लगती है, बल्कि उसे पीड़ा पहुंचाती है, मानो बिना चश्मे के नेताजी को असुविधा हो रही हो, इसलिए वह अपनी छोटी-सी दुकान में गिने-चुने फ्रेमों में से एक नेताजी की मूर्ति पर फिट कर देता। जब किसी ग्राहक को वैसे ही फ्रेम की जरूरत होती, तब वह कैप्टन नेताजी की मूर्ति से क्षमा माँगते हुए चश्मा लाकर ग्राहक को दे देता। बाद में नेताजी की मूर्ति को दूसरा फ्रेम लगा देता। एक बात अभी भी हालदार साहब को समझ नहीं आई कि नेताजी का वास्तविक चश्मा कहाँ गया? पूछने पर पानवाले ने मुसकराते हुए बताया कि मास्टर बनाना भूल गया।

पानवाले के लिए यह मज़ेदार बात थी, लेकिन हालदार साहब के लिए आश्चर्यचकित तथा द्रवित कर देने वाली। उन्होंने ठीक ही सोचा था कि मूर्तिकार मास्टर मोतीलाल वास्तव में कस्बे के अध्यापक थे। महीने भर में मूर्ति बनाने का वादा निभाया। लेकिन पत्थर में काँचवाला पारदर्शी चश्मा कैसे बनाया जाए- यह तय नहीं कर पाया या कोशिश करने पर असफल रहा होगा या बनाते समय टूट गया होगा या पत्थर का चश्मा अलग से बनाकर फिट किया होगा और वह निकल गया होगा। ये सब बातें हालदार साहब को बड़ी विचित्र और आश्चर्य भरी लगीं।

                                (5)

कैप्टन का परिचयः-- इन्हीं विचारों में मस्त पान के पैसे चुकाकर चश्मेवाले की देशभक्ति के सामने सिर झुकाकर वे जीप की तरफ़ चले, फिर मुड़कर पानवाले से पूछा कि क्या कैप्टन चश्मेवाला नेताजी का साथी है या आज़ाद हिंद फौज का भूतपूर्व सिपाही? पानवाले ने पान खाते हुए हालदार साहब को ध्यान से देखा और मुसकराकर उन्हें बताया कि वह लंगड़ा क्या जाएगा फ़ौज में वह पागल है, देखो आ रहा है। उसी से बात कर लो। उसका फोटो कहीं छपवा दो। पानवाले द्वारा एक देशभक्त का मजाक उड़ाना उन्हें अच्छा नहीं लगा। मुड़कर देखा, तो वे अवाक् रह गए। एक बूढ़ा मरियल-सा लंगड़ा आदमी सिर पर गांधी टोपी और आँखों पर काला चश्मा लगाए एक हाथ में एक छोटा-सा संदूक और दूसरे हाथ में एक बाँस पर टंगे बहुत-से चश्मे लिए गली से निकला। एक बंद दुकान के सहारे अपना बाँस टिका दिया। हालदार साहब को तब पता चला कि कैप्टन के पास दुकान भी नहीं है। वे चक्कर में पड़ गए और पूछना चाहते थे कि इसे कैप्टन क्यों कहते हैं? क्या यही इसका वास्तविक नाम है? लेकिन पानवाले ने और अधिक बताने से मना कर दिया। ड्राइवर भी बेचैन हो रहा था, काम भी था, इसलिए हालदार साहब जीप में बैठकर चले गए।

                                  (6)

हालदार साहब का दुखी होना:-- दो साल तक हालदार साहब अपने काम के सिलसिले में कस्बे से गुज़रते रहे और नेताजी की मूर्ति के बदलते हुए चश्मों का देखते रहे। कभी चश्मा गोल होता, कभी नौकोर, कभी लाल, कभी काला, कभी धूप का चश्मा, कभी बड़े काँच वाला, तो कर्म गोगो चश्मा आदि पर कोई-न-कोई चश्मा होता ज़रूर... जो कुछ क्षण के लिए हालदार साहब को आश्चर्य और प्रफुल्लता से भर देता। एक बार ऐसा हुआ कि मूर्ति के बेहरे पर कोई चश्मा नहीं था। चौराहे की अधिकतर दुकानें बंद थीं। पान की दुकान भी बंद थी। अगली बार मूर्ति की आँखों पर चश्मा नहीं था। हालदार साहब ने पान खाया और धीरे से पानवाले से नेताजी के चश्मे के बारे में पूछा। पानवाले ने उदा होकर बताया कि कैप्टन मर गया है। यह सुनकर हालदार साहब उदास हो गए। बार-बार सोचते कि क्या होगा उस कौम का, जो अपने दे की खातिर घर-गृहस्थी जवानी जिंदगी सब कुछ त्याग देने वालों पर हँसती है और अपने लिए बिकने के मौके ढूँढ़ती है!

                                (7)

बच्चों द्वारा सरकंडे का चश्मा बनाना:-- पंद्रह दिन बाद हालदार साहब फिर उसी कस्बे से गुजरे। कस्बे में घुसने से पहले उन्होंने विचार बना लिया था कि सुभाष जी की प्रतिमा तो अवश्य होगी, पर उनकी आँखों पर चश्मा नहीं होगा। मास्टर जी बनाना भूल गए और कैप्टन मर गया। उन्होंने सोचा कि आज वे रुकेंगे नहीं, पान नहीं खाएंगे, मूर्ति की तरफ़ देखेंगे भी नहीं, सीधे निकल जाएँगे। लेकिन आदत से मज़बूर उनकी निगाहें मूर्ति की तरफ उठ गई। अचानक वे चीख उठे और गाड़ी रोकने के लिए कहा। गाड़ी की गति बहुत तेज थी। ड्राइवर ने जोर से ब्रेक मारी, रास्ते में चलते लोग देखने लगे। जीप अभी रुकी भी नहीं थी कि हालदार साहब कूदे, तेज-तेज कदमों से मूर्ति के सामने जाकर सावधान होकर खड़े हो गए। मूर्ति की आँखों पर सरकंडे से बना छोटा-सा चश्मा रखा हुआ था, जैसा बच्चे बना लेते हैं। इतनी-सी बात पर भावुक हालदार साहब की आँखें भर आई।

                   पाठ्य पुस्तक प्रश्न:--

प्रश्न 1. सेनानी न होते हुए भी चश्मेवाले को लोग कैप्टन क्यों कहते थे?

उत्तर:- चश्मेवाला न तो सेनानी था, न ही वह नेताजी का साथी था और न आजाद हिंद फ्रीज का भूतपूर्व सिपाही। फिर भी लोग उसे कैप्टन' कहकर बुलाते थे। उसे देशभक्तों से बहुत प्रेम था, क्योंकि, उसके अंदर देशभक्ति की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी। वह नेताजी का अधिक सम्मान करता था इसलिए वह बिना चश्मेवाली नेताजी की मूर्ति देखकर दुखी होता था। अतः वह उनकी मूर्ति को बार-बार चश्मा पहनाकर उनके प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करता था। लोग उसकी देशभक्ति की भावना को देखकर व्यंग्य रूप में उसे कैप्टन कहकर पुकारते थे।


प्रश्न 2. हालदार साहब ने ड्राइवर को पहले चीराहे पर गाड़ी रोकने के लिए मना किया था लेकिन बाद में तुरंत रोकने को कहा-

(क) हालदार साहब पहले मायूस क्यों हो गए थे?

उत्तर:-- हालदार साहब को लगा था कि कैप्टन की मृत्यु के बाद अब कस्बे की हृदयस्थली में प्रतिस्थापित सुभाषचंद्र बोस की प्रतिमा की आँखों पर चश्मा नहीं होगा। चश्मे का न होना कोई साधारण-सी बात नहीं थी। इसका सीधा अर्थ था- कस्बे के लोगों में देशभक्ति की भावना नहीं है तथा जनता में जागरूकता का अभाव है। इसी कारण वे मावूस थे।

(ख) मूर्ति पर सरकंडे का चश्मा क्या उम्मीद जगाता है?

                             अथवा

बच्चों द्वारा मूर्ति पर सरकंडे का चश्मा क्या उम्मीद जगाता है?

उत्तरः--  मूर्ति पर सरकंडे का चश्मा उम्मीद जगाता है कि हमारी आनेवाली पीढ़ी में भी देश-प्रेम की भावना अभी जीवित है। इस देश के निर्माण में और लोग अपने-अपने तरीके से योगदान देते हैं। बड़े ही नहीं, बच्चे भी इसमें शामिल हैं। देशभक्त कैप्टन मरकर भी उस कस्बे के बच्चों में जिंदा है।

(ग) हालदार साहब इतनी-सी बात पर भावुक क्यों हो उठे?

उत्तरः-- प्रतिमा की आँखों पर 'सरकंडे के चश्मे' जैसी 'इतनी-सी बात' ने यह सिद्ध कर दिया था कि इस कस्बे में अब एक नहीं अनेक कैप्टन हैं, जो राष्ट्र के प्रति अपने उत्तरदायित्वों से परिचित हैं। बाल कैप्टन रूपी बच्चों का साहसिक कार्य उन्हें अहसास करवा गया था कि किसी प्रशासनिक अधिकारी या बोर्ड तथा मूर्तिकारों द्वारा सम्मानित व्यक्तियों की प्रतिमाएँ लगवाने तथा बनाने में कमियों रह जाने पर देश की भावी पीढ़ी उन प्रतिमाओं को उनके अधूरेपन के साथ कदापि नहीं रहने देगी। यही सोचकर ह साहब भावुक हो उठे थे।

प्रश्न-3 आशय स्पष्ट कीजिए। 

" बार-बार सोचते, क्या होगा उस कौम का जो अपने देश की खातिर घर-गृहस्वी जवानी- जिंदगी सब कुछ होम कर देनेवालों पर भी हँसती है और अपने लिए बिकने के मौके ढूँढती है।"

उत्तर:-  हालदार साहब चश्मेवाले की मृत्यु की खबर से भावुक हो गए। वे सोचने लगे उन लोगों का क्या होगा, जो सच्चे देशभक्तों पर हँसते हैं। सच्चे देशभक्त देश के लिए अपनी घर-गृहस्थी, युवावस्था, जिंदगी आदि सब कुछ न्योछावर कर देते हैं, लेकिन स्वार्थी लोग उनका मजाक उड़ाते हैं और स्वयं देश के बारे में बिलकुल नहीं सोचते। लालच में आकर वे अपने को भी बेचने के लिए तैयार हो जाते हैं। हालदार साहब सोचते हैं जिस देश में लोग अपनी स्वार्थ सिद्धि तो 'येन-केन-प्रकारेण' करते हैं पर देश पर सर्वस्व बलिदान कर देने बालों का मज़ाक उड़ाते हैं, उस देश का भविष्य ही नहीं होता।

प्रश्न 4. पानवाले का एक रेखाचित्र प्रस्तुत कीजिए।

                     अथवा 

पानवाले का चरित्र-चित्रण कीजिए।

उत्तरः- कस्बे के चौराहे पर पानवाले की दुकान है। यहाँ हमेशा भीड़ लगी रहती है। पानवाला हमेशा पान खाता रहता है। उसके मुंह में हमेशा पान ठुसा रहता है। वह काला तथा मोटा है। वह खुशमिजाज़ है। उसकी तोंद निकली हुई है और जब वह हँसता है तो तोंद विरक्ती है। उसके दाँत पान खाने के कारण लाल-काले हैं। करने की सारी जानकारी उसके पास होती थी जिसे वह अपने ग्राहकों को मील अंदाज में हास्य तथा व्यंग्य का पुट देकर सुनाता था। कैप्टन को लंगड़ा तथा पागल कहकर मजाक उड़ाने वाला कैप्टन की मृत्यु के पश्चात् उसे याद करते हुए भावुक भी हो उठता है।

प्रश्न 5.“वो लंगड़ा क्या जाएगा फ्रौज में । पागल है पागल!"

कैप्टन के प्रति पानवाले की इस टिप्पणी पर अपनी प्रतिक्रिया लिखिए।

                     अथवा

कैप्टन के प्रति पानवाले की व्यंग्यात्मक टिप्पणी पर अपनी प्रतिक्रिया लिखिए। 

उत्तर:--  हमें पानवाले का कैप्टन को लंगड़ा तथा पागल कहना अच्छा नहीं लगा, क्योंकि वह सच्चे देशभक्त का मजाक उड़ा रहा था। कैप्टन के देश-प्रेम को वह उसका पागलपन समझता था। कैप्टन के प्रति उसके मन में आदर-प्रेम जैसी कोई भावना नहीं थी। पानवाले के द्वारा ऐसी टिप्पणी करना अच्छी बात नहीं। इस दृष्टि से पानवाले का व्यवहार अनुचित लगा। कैप्टन ने चश्मा लगाकर एक तरफ नेताजी की मूर्ति को पूर्णता प्रदान की, तो दूसरी तरफ कस्बे की कमी पर परदा डाला। ऐसे देशभक्त के हृदयगत भावों की उपेक्षा करके अपने ग्राहकों के सामने पान बेचते हुए बातों के चटपटे मसाले के रूप में कैप्टन के लिए अपशब्द कहना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है।









4 comments

  1. Bahut acha content h sir. Hamne Jo apni notebook me answers likhe h usse kai ache answers h que ke .

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  2. शुभ आशीर्वाद, बेटा।

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