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कक्षा-11, आरोह भाग-1 पाठ- नमक का दारोगा,

पुस्तक:- आरोह  कक्षा-11      पाठ- नमक का दरोगा                     प्रेमचंद                लेखक परिचय जीवन परिचय:- प्रेमचंद हिंदी साहित्य ...



पुस्तक:- आरोह 

कक्षा-11


     पाठ- नमक का दरोगा

                   प्रेमचंद

               लेखक परिचय

जीवन परिचय:- प्रेमचंद हिंदी साहित्य के ऐसे प्रथम कलाकार हैं जिन्होंने साहित्य का नाता जन-जीवन से जोड़ा। उन्होंने अपने कथा साहित्य को जन-जीवन के चित्रण द्वारा सजीव बना दिया है। वे जीवनभर आर्थिक अभाव की विषम चक्की में पिसते रहे। उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त आर्थिक एवं सामाजिक भेद-भाव को बड़ी निकटता से देखा था। यही कारण है कि जीवन की यथार्थ अभिव्यक्ति का सजीव चित्रण उनके उपन्यासों एवं कहानियों में दिखाई देता है।प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई, सन 1880 में वाराणसी जिले के लमही नामक ग्राम में हुआ था। उनका वास्तविक नाम धनपत राय था। आरंभ में वे नवाबराय के नाम से उर्दू में लिखते थे युग के प्रभाव ने उनको हिंदी की ओर आकृष्ट किया। प्रेमचंद ने कुछ पत्रों का संपादन भी किया। उन्होंने 'सरस्वती प्रेस' के नाम से अपनी प्रकाशन संस्था भी स्थापित की थी।

जीवन में निरंतर कठिन परिस्थितियों का सामना करने के कारण प्रेमचंद का शरीर जर्जर हो रहा था। देशभक्ति के पथ पर चलने के कारण उनके ऊपर सरकार का आतंक भी छाया रहता था पर प्रेमचंद एक साहसी सैनिक के समान अपने पथ पर आगे बढ़ते रहे। उन्होंने वही लिखा जो उनकी आत्मा ने कहा। वे मुंबई में पटकथा लेखक के रूप में अधिक समय तक कार्य नहीं कर सके क्योंकि वहाँ उन्हें फिल्म निर्माताओं की इच्छा के अनुसार लिखना पड़ता था। उन्हें स्वतंत्र लेखन ही पसंद था निरंतर साहित्य-साधना करते हुए 8 अक्तूबर, 1936 को उनका स्वर्गवास हो गया।

साहित्यिक विशेषताएँ – प्रेमचंद जी प्रमुख रूप से कथाकार थे। उन्होंने जो कुछ भी लिखा, वह जन-जीवन का मुँह बोलता चित्र है। वे आदर्शोन्मुखी - यथार्थवादी कलाकार थे। उन्होंने समाज के सभी वर्गों को अपनी रचनाओं का विषय बनाया, पर निर्धन, पीडित एवं पिछड़े हुए वर्गों के प्रति उनकी विशेष सहानुभूति थी। उन्होंने शोषक एवं शोषित दोनों वर्गों का बड़ा सुंदर चित्रण किया है। ग्रामीण जीवन के चित्रण में प्रेमचंद अप्रतिम थे।

रचनाएँ :-- प्रेमचंद की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं:-

उपन्यास — वरदान, सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कायाकल्प, निर्मला, प्रतिज्ञा, गवन, कर्मभूमि, गोदान एवं मंगलसूत्र (अपूर्ण) 

कहानी संग्रहः- प्रेमचंद ने लगभग 400 कहानियों की रचना की। उनकी प्रसिद्ध कहानियाँ 'मानसरोवर' के आठ भागों में संकलित ।

नाटक - कर्बला, संग्राम और प्रेम की देवी।

निबंध संग्रह:-- कुछ विचार,  विविध प्रसंग 

भाषा-शैली:-- नमक  का दारोगा' कहानी भाषा-शैली की दृष्टि से प्रेमचंद की एक उत्कृष्ट रचना है। भाषा व्यावहारिक, पात्रानुकूल तथा सहज है। कहीं-कहीं तत्सम तद्भव, देशज तथा विदेशी शब्दों का सुंदर समन्वय प्राप्त होता है; जैसे-'जब नमक का नया विभ

बना और ईश्वर प्रदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे।' कहानी में पौ-बा होना, गोलमाल होना, चलता-पुरजा होना, पाप कटना, ठकुर सुहाती आदि मुहावरों का सटीक प्रयोग किया है। 'कगारे पर का 'होना', 'कलवार की अशालता लहलहाई' जैसी लोकोक्तियों ने इनके भाषा सौंदर्य को चार चाँद लगा दिए हैं।

लेखक की शैली कथात्मक, नाटकीय, वर्णनात्मक तथा स्वाभाविक है। पंडित अलोपीदीन जब वंशीधर को रिश्वत देना चाहते हैं से उस समय की शैली अत्यंत नाटकीय हो जाती है; जैसे-

"पंडित घबराकर दो-तीन कदम पीछे हट गए। अत्यंत दीनता से बोले- बाबू साहब, ईश्वर के लिए मुझपर दया कीजिए,

मैं पच्चीस हजार पर निपटारा करने को तैयार हूँ।

          पाठ का सार 

                                  (1)

'नमक का दारोगा' प्रेमचंद की एक ऐसी कहानी है जिसमें लेखक ने समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार की पोल खोलते हुए ईमानदार व्यक्ति की व्यथा तथा उसे मिलनेवाले ईमानदारी के फल का चित्रण किया है।

जब नमक का विभाग बना तो इसकी भी कालाबाजारी होने लगी। अधिकारी रिश्वत लेकर इस चोरबाजारी को अनदेखा कर रहे थे। इन्हीं दिनों मुंशी वंशीधर नौकरी की तलाश में निकले। उनके पिता वृद्ध हो गए थे। उन्होंने पुत्र को बहुत समझाकर विदा किया कि वेतन के साथ-साथ ऊपरी आमदनी से भी परहेज नहीं करना। वंशीधर ने सब कुछ सुना परंतु उसे अपने धैर्य, बुद्धि और आत्मावलंबन पर बहुत विश्वास था। उसे नमक विभाग में दारोगा की नौकरी मिल गई। उस विभाग में वेतन के साथ-साथ ऊपरी आमदनी भी बहुत थी। उनके पिता बहुत प्रसन्न हुए तथा पड़ोसियों के हृदय में काँटे चुभने लगे।

                                   (2)

सर्दियों की रात के समय दारोगा वंशीधर की नींद अचानक खुली तो उन्हें नमक दफ्तर से कुछ दूर बहती हुई जमुना के जल प्रवाह के स्थान पर गाड़ियों की गड़गड़ाहट तथा मल्लाहों का कोलाहल सुनाई दिया। उन्हें कुछ गोलमाल होने की संभावना लगी। वे वरदी पहनकर तथा तमंचा जेब में रखकर घोड़े पर सवार होकर जमुना के पुल पर जा पहुँचे। वहाँ गाड़ियों की एक लंबी कतार पुल के पार जा रही थी। उनके पूछने पर गाड़ीवानों ने बताया कि ये दातागंज के पंडित अलोपीदीन की गाड़ियाँ हैं। पंडित अलोपोदीन उस क्षेत्र के सबसे अधिक प्रतिष्ठित जमींदार थे। उनका लाखों का लेन-देन था तथा सभी अफ़सर उनके मेहमान बनते थे। दारोगा जी के यह पूछने पर पता चला कि गाड़ियाँ कहाँ जाएँगी ? उत्तर मिला कि कानपुर जाएँगी। उनमें क्या लदा है, यह जानने के लिए जब दारोगा जी ने बोरों को टटोला तो उनमें नमक के ढेले थे। उन्होंने वे गाड़ियाँ वहीं रोक दीं।

पंडित अलोपीदीन को जब इस घटना का पता चला तो वे तुरंत घाट की ओर चल पड़े। उन्हें पूरा विश्वास था कि वे रिश्वत के बल पर दारोगा को खरीद लेंगे और उनकी गाड़ियाँ निकल जाएँगी। उनकी मान्यता थी कि न्याय और नौति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं। वे वंशीधर को रिश्वत देना चाहते हैं परंतु वंशीधर कौड़ियों पर ईमान बेचनेवाले व्यक्ति नहीं थे। वे जमादार बदलू सिंह को अलोपीदीन को हिरासत में लेने की आज्ञा देते हैं। इस पर अलोपीदीन हैरान हो जाते हैं क्योंकि आज तक उनसे किसी ने ऐसी कठोर बातें नहीं की थीं। वे वंशीधर को चालीस हजार तक की रिश्वत पेश करते हैं, परंतु वंशीधर स्पष्ट कह देते हैं कि 'चालीस हजार नहीं, चालीस लाख पर भी नहीं'। वे बदलू सिंह को पंडित अलोपीदीन को हिरासत में लेकर चलने के लिए कहते हैं। बदलू सिंह को अपनी ओर हथकड़ियाँ लेकर आते देखकर अलोपीदीन मूर्छित होकर गिर पड़े।

                                 (3)

सुबह चारों ओर इसी घटना की चर्चा थी। अलोपीदीन को हथकड़ियों में बाँधकर अदालत में लाया गया। अदालत के अधिकारी, वकील- मुख्तार, अरदली, चपरासी आदि सभी उन्हें हथकड़ियों में देखकर हैरान थे क्योंकि सभी उनके उपकारों से दबे हुए थे। उन्हें उनका इस प्रकार कानून के फंदे में फँसना भी अचंभित कर रहा था क्योंकि वे अपने धन के बल पर कुछ भी कर सकते थे। अदालत में भी धन चला और मुंशी वंशीधर का सत्य धराशायी हो गया। अदालत में डिप्टी मजिस्ट्रेट ने अलोपीदीन के विरुद्ध दिए गए प्रमाणों को निर्मूल और भ्रमात्मक बताकर उन्हें रिहा कर दिया तथा वंशीधर को चेतावनी दी कि वह भविष्य में होशियारी से काम करे। इस घटना के एक सप्ताह के अंदर ही वंशीधर को नौकरी से निकाल दिया गया। वे घर आए तो उनके पिता ने उन्हें बुरा-भला कहा। माता तीर्थ यात्रा पर जाना चाहती थीं, उसकी कामनाएँ भी मिट्टी में मिल गई तथा पत्नी ने भी कई दिनों तक ढंग से बात नहीं की।

                             (4)

इस प्रकार के वातावरण में वंशीधर का एक सप्ताह बीत गया। एक दिन संध्या के समय एक सजा हुआ रथ उनके द्वार पर आकर रुका। वंशीधर के पिता अगवानी के लिए दौड़े तथा पंडित अलोपीदीन को रथ से उतरता देखकर उन्हें झुककर दंडवत करने लगे तथा उनकी चापलूसी में लग गए। वे वंशीधर को बुरा-भला कहने लगे तो अलोपीदीन ने कहा कि ऐसा नहीं कहें, आपका पुत्र तो कुल-तिलक और पुरुषों की कीर्ति को उज्ज्वल करनेवाला धर्मपरायण व्यक्ति है जो धर्म पर अपना सब कुछ अर्पण कर सकता है। उन्होंने वंशीधर की प्रशंसा करते हुए उसे अपनी जायदाद का मैनेजर पद स्वीकार करने की प्रार्थना की। उन्हें छह हजार वार्षिक वेतन के अतिरिक्त बंगला, नौकर-चाकर आदि देने का वचन भी दिया। वंशीधर ने स्वयं को इस पद के अयोग्य मानते हुए पद स्वीकार करने से मना कर दिया, परंतु अलोपीदीन के बार-बार आग्रह करने पर उन्होंने यह पद स्वीकार कर लिया। अलोपीदीन ने प्रसन्न होकर उन्हें गले लगा लिया।


           पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर

पाठ के साथः--

प्रश्न 1. कहानी का कौन-सा पात्र आपको सर्वाधिक प्रभावित करता है और क्यों ?

उत्तरः- 'नमक का दारोगा' कहानी में प्रमुख पात्र दो ही हैं-मुंशी वंशीधर और पंडित अलोपीदीन। अन्य सभी पात्र तो कहानी को गति और स्पष्टता प्रदान करनेवाले हैं। दोनों प्रमुख पात्रों की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं जो कहानी के पाठकों को अपनी ओर करती हैं। पंडित अलोपीदीन संपन्न हैं, मृदुभाषी हैं, वाक्पटु हैं, दूर-दृष्टि के स्वामी हैं, साधन-संपन्न और समाज में प्रतिष्ठित हैं। जो गुण मुंशी वंशोधर में हैं, वे पंडित अलोपीदीन में भी नहीं हैं। इसलिए मुझे मुंशी वंशीधर ने सर्वाधिक प्रभावित किया है। वह निर्धन परिवार से संबंधित था और उसे अपने घर की हालत अच्छी तरह से मालूम थी। उसके पिता रिश्वत और बेईमानी के पक्षधर थे। उनकी दृष्टि में वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते घटते लुप्त हो जाता है। इसलिए नौकरी करनेवाले को ऊपरी आमदनी की ओर ध्यान रखना चाहिए। उन्होंने यही शिक्षा अपने पुत्र वंशीधर को दी थी, लेकिन पुत्र ने जिस ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा का परिचय दिया था वह सर्वथा सराहनीय ही नहीं अपितु अनुकरणीय है। अलोपीदीन के द्वारा दी जानेवाली चालीस हजार की रिश्वत भी उसने ठुकरा दी थी, जिससे उसके घर की कंगाली दूर हो सकती थी। उसने लोगों का विरोध झेला, नौकरी से हाथ धोए अपमान सहा पर अपनी ईमानदारी से टस से मस नहीं हुआ और जब पंडित अलोपीदीन ने उसके घर आकर उसे स्थायी मैनेजर नियत किया तो उसने शालीनता और भद्रता का अद्भुत परिचय दिया। वह कठोर दारोगा था तो धर्मनिष्ठ व्यक्ति भी था। जीवन में चाहे धन का महत्व है, पर मानवोपयोगी मूल्यों का महत्व उससे भी बढ़कर है। वह पहले दर्जे का ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ था । कर्तव्य से बढ़कर उसके लिए कुछ भी नहीं था। इन्हीं गुणों के कारण वंशीधर सभी पाठकों के मन पर अपनी अनूठी छाप छोड़ता है।

प्रश्न 2. 'नमक का दारोगा' कहानी में पंडित अलोपीदीन के व्यक्तित्व के कौन-से दो पहलू (पक्ष) उभरकर आते हैं? 

उत्तर:-  पंडित अलोपीदीन 'नमक का दारोगा' कहानी के प्रमुख पात्र हैं। उनके व्यक्तित्व के अनेक पहलू सामने आते हैं पर उनमें से प्रमुख दो पहलू हैं-

(i) निपुण व्यवसायी :- पंडित अलोपीदीन धन के महत्व को भली-भाँति समझनेवाला अति कुशल व्यापारी था। वह जानता था कि किस व्यक्ति से किस भाषा में बोलकर काम निकलवाया जा सकता है। किसी भी सफल व्यापारी का महत्वपूर्ण गुण मीठी जुबान है और पंडित अलोपीदीन मीठी जुबान में बोलने और व्यवहार करने में सिद्धहस्त था। उसे धन लेने और देने का ढंग आता था। वह अपने प्रत्येक कार्य को येन-केन-प्रकारेण करवा लेता था। जब वंशीधर किसी भी अवस्था में रिश्वत लेकर उसका काम करने को तैयार नहीं हुआ था तो उसने अदालत के माध्यम से अपनी रक्षा कर ली थी। केवल अपनी रक्षा ही नहीं की थी, अपितु वंशीधर को नौकरी से निकलवा भी दिया था। वह हर वस्तु का मोल लगाना जानता था।

(ii) दूर दृष्टि का स्वामी:-- पंडित अलोपीदीन बहुत दूर की सोचता था। दारोगा वंशीधर ने गैर-कानूनी कार्य के लिए अलोपीदीन को गिरफ्तार किया था। उसे चालीस हजार रुपए रिश्वत भी अपने कर्तव्य से डिगा नहीं पाई थी। अलोपीदीन अदालत से छूट गया था, पर वह वंशीधर की कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी पर मन ही मन मुग्ध हो गया था। अपनी दूर दृष्टि के कारण उसने पहचान लिया था कि वंशीधर सामान्य दारोगा नहीं था। वह परिश्रमी, ईमानदार, निष्ठावान और कर्तव्य पर अडिग रहनेवाला आदमी था। ऐसा व्यक्ति सरलता से प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए वह स्वयं उसके घर पहुँचा था और उसे अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर नियुक्त कर दिया था। जिस व्यक्ति ने उसे गिरफ़्तार किया था उसी को उसने अपनी सबसे बड़ी जिम्मेदारी सौंप दी थी। यदि उसके स्थान पर कोई सामान्य इनसान होता तो उसे इतना ऊँचा ओहदा देने की जगह उससे बदला लेने की बात सोचता।

प्रश्न 3. कहानी के लगभग सभी पात्र समाज की किसी-न-किसी सच्चाई को उजागर करते हैं। निम्नलिखित पात्रों के संदर्भ में से उस अंश को उद्धत करते हुए बताइए कि यह समाज कि किस सच्चाई को उजागर करते हैं- 

(क) वृद्ध मुंशी 

(ख) वकील

(ग) शहर की भीड़।

उत्तर:- 

(क) वृद्ध मुंशी :- वृद्ध मुंशी वंशीधर के पिता थे जो घर-गृहस्थी के बोझ से बुरी तरह दबे हुए थे। वह जीवन के स के लिए रिश्वत और बेईमानी को परम आवश्यक मानते थे। उन्होंने अपने पुत्र को समझाते हुए कहा था- बेटा! घर की  दुर्दशा देख रहे हो। ऋण के बोझ से दबे हुए हैं। लड़कियाँ हैं, वह घास-फूस की तरह बढ़ती चली जा रही हैं। मैं कगारे पर का वृक्ष हो रहा हूँ, न मालूम कब गिर पड़ें। अब तुम्हीं घर के मालिक मुख्तार हो। नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर की मजार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढ़ना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृद्धि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती है, तुम स्वयं विद्वान हो, तुम्हें क्या समझाऊँ। इस विषय में विवेक की बड़ी आवश्यकता है। मनुष्य को देखो, उसकी आवश्यकता को देखो और अवसर को देखो, उसके उपरांत जो उचित समझो, करो। गरज़वाले आदमी के साथ कठोरता करने में लाभ ही लाभ है, लेकिन बेगरज़ को रौब पर पाना जरा कठिन है। इन बातों को निगाह में बाँध लो यह मेरी जन्म भर की कमाई है। मुंशी जी सरकारी नौकरी करनेवालों के एक बड़े वर्ग के प्रतिनिधि हैं जो घर-गुज्जर के लिए रिश्वत लेने का पक्ष लेते हैं।

(ख) वकीलः-वकील अदालत में सच को झूठ और झूठ को सच सिद्ध करने में हरदम जुटे रहते हैं। उनकी रोटी ही इस बात पर टिकी रहती है कि किस प्रकार अपराधी को भी सच्चा और ईमानदार सिद्ध किया जा सके। जब उनका झूठ किसी भी प्रकार सच सिद्ध हो जाता है तो वे प्रसन्नता से भर उठते हैं। लेखक ने लिखा है-वकीलों ने यह फ़ैसला सुना और उछल पड़े। जब पंडित अलोपीदीन नमक के मुकदमे में गिरफ्तार कर लिए गए थे तो वकीलों ने उन्हें पाक साफ़ सिद्ध ही नहीं किया था बल्कि नमक के दारोगा मुंशी वंशीधर को ही चेतावनी दिलवा दी थी- यद्यपि नमक के दारोगा मुंशी वंशीधर का अधिक दोष नहीं है, लेकिन यह बड़े खेद की बात है कि उसकी उद्दंडता और विचारहीनता के कारण एक भलेमानस को कष्ट झेलना पड़ा। हम प्रसन्न हैं कि वह अपने काम में सजग और सचेत रहता है, किंतु नमक के मुकदमे की बढ़ी हुई नमकहलाली ने उसके विवेक और बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया। भविष्य में उसे होशियार रहना चाहिए

(ग) शहर की भीड़ः- शहर की भीड़ तमाशबीन और अस्थिर विचारधारा की होती है। वह नदी के बहाव की तरह केवल शोर करती है; सोचती नहीं है। जब पंडित अलोपीदीन गिरफ्तार कर लिए गए थे तो शहरवासी उन्हें अपराधी मान रहे थे— जिसे देखिए, वही पंडित जी के इस व्यवहार पर टीका-टिप्पणी कर रहा था, निंदा की बोछारें हो रही थीं, मानो संसार से अब पापी का पाप कट गया। पानी को दूध के नाम से बेचने वाला ग्वाला, कल्पित रोजनामचा भरनेवाले अधिकारी वर्ग, रेल में बिना टिकट सफ़र करनेवाले बाबू लोग, जाली दस्तावेज़ बनानेवाले सेठ और साहूकार, सब-के-सब देवताओं की भाँति गरदनें चला रहे थे।

प्रश्न 4:-निम्न पंक्तियों को ध्यान से पढ़िए-

"नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मज़ार है। निगाह चढ़ावे और चादर घर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढ़ना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है जो एक दिन दिखाई देता है और पटते घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृद्धि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती है, तुम स्वयं विद्वान हो, तुम्हें क्या समझाऊँ ।"

(क) यह किसकी उक्ति है?

(ख) मासिक वेतन को पूर्णमासी का चाँद क्यों कहा गया है? 

(ग) क्या आप एक पिता के इस वक्तव्य से सहमत हैं ? 

उत्तर:-

(क) यह उक्ति नमक के दारोगा वंशीधर के पिता की है।

(ख) मासिक वेतन की बंधी बंधाई राशि केवल उसी दिन पूरी दिखाई देती है जिस दिन प्राप्त होती है। उसके बाद तो वह घर-गृहस्थी - के कामों में प्रतिदिन कम से कमतर होती जाती है और महीना पूरा होने से पहले ही समाप्त हो जाती है। इसलिए लेखक ने मासिक वेतन को पूर्णमासी का चाँद कहा है जो एक ही दिन पूरा दिखाई देता है और फिर अमावस्या तक लगातार घटता ही जाता है।

(ग) मैं पिता के इस वक्तव्य से सहमत नहीं हूँ। यह समाज में फैली रिश्वतखोरी, बेईमानी और निकम्मेपन का पाठ पढ़ाता है। यह जीवन मूल्यों के विपरीत होने के कारण हेय है। 

प्रश्न : 5 'नमक का दारोगा' कहानी के कोई दो अन्य शीर्षक बताते हुए उसके इस कहानी के दो अन्य शीर्षक हो सकते हैं  ।

उत्तर:- (i) ईमानदारी का फल:--  इस नामकरण का आधार नमक के दारोगा मुंशी वंशीधर के कर्म पर आधारित है। कर्म की राह चलते हुए उसे चाहे अपमानित होना पड़ा, नौकरी से हाथ धोना पड़ा, पर उसकी ईमानदारी का फल उसी ने दिया ये उसने गिरफ्तार करवा दिया था।

(ii) दूर-दृष्टि:-- इस नामकरण के द्वारा पंडित अलोपीदीन की सोच और समझ का परिचय प्राप्त होता है। इससे उददेश्य की पूर्ति की ओर संकेत किया गया है।

प्रश्न 6:- कहानी के अंत में अलोपीदीन के वंशीधर के नियुक्त करने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं? तर्क सहित उत्तर दीजिए। आर कहानी का अंत किस प्रकार करते ?

उत्तरः- कहानी के अंत में पंडित अलोपीदीन ने मुंशी वंशीधर को अपनी सारी संपत्ति की देखभाल हेतु मैनेजर नियुक्त कर दिया। ऐसा कर अलोपीदीन ने बुद्धिमत्ता और दूर दृष्टि का परिचय दिया। मुंशी वंशीधर किसी भी अवस्था में धन के लोभी नहीं थे। ये किसी भी से भयभीत नहीं होते थे और किसी भी कीमत पर बिकने को तैयार नहीं थे। ऐसा व्यक्ति ही उनकी संपत्ति की सुरक्षा कर सकता था। वंशीधर ने अपने पिता के कहने और समझाने पर लालच नहीं किया था। वो कर्तव्यनिष्ठ थे, ईमानदार थे और निर्भीक थे। यदि मैं इस कहानी का रचयिता होता तो मैं भी इस कहानी का अंत ऐसे ही करता।



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