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कक्षा-10 , क्षितिज , पाठ- राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद पाठ का भावार्थ, प्रश्नोत्तर , कवि - श्री तुलसीदास जी

कक्षा-10 ,  क्षितिज , पाठ- राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद  पाठ का भावार्थ,  प्रश्नोत्तर , कवि - श्री तुलसीदास जी     राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद :-...

कक्षा-10 , 

क्षितिज ,

पाठ- राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद 

पाठ का भावार्थ, 

प्रश्नोत्तर ,

कवि - श्री तुलसीदास जी

    राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद :-





         पाठ का भावार्थ 

                        काव्यांश-1

शब्दार्थ:- संभुधनु = शिवजी का धनुष, भंज निहारा = भंग अर्थात् तोड़ने वाला, आयेसु = आज्ञा,  रिसाइ = क्रोध करना,  अरि करनी= शत्रु के कार्य, रिपु = शत्रु, बिलगाउ = अलग होना, बिहाइ= बाहर, अवमाने= अवमानना, अवज्ञा करना, लरिकाई = बचपन में , असिरिस = इस प्रकार का क्रोध, भृगुकुलकेतू = भृगुकुल की ध्वजा स्वरूप, त्रिपुरारि धनु = शिवजी का धनुष ।

संकेत:- नाथ संभुधनु भंजनिहारा...... धनु विदित सकल संसार।।

भावार्थ: श्री रामचंद्र जी परशुराम जी से विनय के स्वर में कहते हैं कि हे स्वामी! शिवजी के धनुष को तोड़ने वाला तुम्हारा ही कोई दास होगा। यदि आपकी कोई आज्ञा हो, तो मुझसे कहो ? रामचंद्र जी की इस बात को सुनकर परशुराम क्रोधित होकर बोले, "सेवक वह होता है जो सेवा का कार्य करता है। यदि कोई सेवक शत्रुता का कार्य करने लगे, तो उससे तो लड़ाई ही करनी पड़ेगी। हे राम! सुनो, जिसने भी शिवजी के इस धनुष को तोड़ा है, वह सहस्रबाह के समान मेरा शत्रु है और शत्रु का संहार करना ही पड़ेगा। वह जो कोई भी है इस समाज को छोड़कर अलग हो जाए, नहीं तो उसके कारण अन्य राजा मारे जाएँगे।" मुनि के इन क्रोध भरे वचनों को सुनकर लक्ष्मण जी मुस्काने लगे। लक्ष्मण जी ने परशुराम पर व्यंग्य बाण छोड़ते हुए उनको अपमानित किया, जिससे परशुराम का क्रोध और बढ़ गया। लक्ष्मण ने परशुराम से कहा, "है गोसांई! लड़कपन में हमने न जाने कितनी धनुहियाँ तोड़ डाली, परंतु आप कमी भी इस प्रकार क्रोधित नहीं हुए। ऐसी ममता इस धनुष पर ही क्यों ?" लक्ष्मण के इन वचनों को सुनकर भृगुवंश के ध्वजावाहक परशुराम कुपित होकर बोले, “अरे राजपुत्र! काल के वश में होने के कारण तुझे बोलने का होश नहीं रहा। संपूर्ण संसार में प्रसिद्ध इस शिवजी के धनुष को धनुही के समान सामान्य समझ रहे हो?"

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                       काव्यांश- 2

शब्दार्थ:- छति = क्षति (हानि), जून = जीर्ण, पुराना, भौंरे = धोखे से, काज = कारण, बधौं = वध, कोही = क्रोधा, विपुल = बहुत बार ,छेद निहारा = काटने वाला ,अर्भक = भ्रूण (गर्भ का शिशु), दलन = नाश करना

संकेतः- लखन कहा हँसि.......  दलन परसु मोर अति घोर ।।

भावार्थ:-  लक्ष्मण ने परशुराम से हँसकर कहा- हे देव! सुनिए, हमारे लिए तो सभी धनुष एक जैसे ही हैं। पुराने और कमजोर धनुष को तोड़ने में क्या हानि और क्या लाभ ! रामचंद्र जी ने तो इसे नए के धोखे से देखा था। उन्हें क्या पता था कि यह धनुष पुराना है। पुराना होने के कारण यह छूते ही टूट गया। हे मुनि! आप तो बिना कारण के क्रोध कर रहे हैं। परशुराम जी ने अपने फरसे की ओर  देखकर कहा, अरे दुष्ट! तूने अब तक मेरे क्रोध और स्वभाव के बारे में नहीं सुना। मैं तुझे बालक जान कर नहीं मार रहा और तू है कि मुझे निरा मुनि समझ रहा है। मैं बाल ब्रह्मचारी हूँ और अत्यंत क्रोधी हूँ। मैं क्षत्रिय कुल का शत्रु हूँ और  इसी शत्रुता के कारण विश्वभर में विख्यात हूँ। अनेक बार मैंने अपनी भुजाओं के बल से इस पृथ्वी को क्षत्रियों से रहित करके, इस पृथ्वी को ब्राह्मणों को दे डाला है। हे राजकुमार ! सहस्रबाहु की भुजाओं को काट डालने वाले मेरे फरसे की ओर देखो।

अरे राजा के पुत्र ! तू अपने माता-पिता को सोचने के लिए विवश मत कर। मेरा फरसा बड़ा ही भयानक है, यह फरसा गर्भस्थ शिशु का भी नाश कर देने वाला है।

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                        काव्यांश - 3 

संकेत:-- बिहसि लखनु बोले मृदु बानी..... बोले गिरा गंभीर।। 

शब्दार्थ:- बिहसि = हँसकर, महाभट = महान् योद्धा, कुठारू = कुल्हाड़ा, कुम्हड़बतिया = कुम्हड़े का बहुत छोटा फल, तरजनी अंगूठे के पास की अंगुली, सरासन = धनुष-बाण, सुराई = शूरता, कुलिस = कठोर, रिस = क्रोध, छमहु = क्षमा करें, गिरा = वाणी ।

भावार्थ:-- लक्ष्मण जी हँसकर कोमल वाणी में बोले, "अरे मुनीश्वर, तो आप अपने आपको बहुत बड़ा योद्धा मानते हैं। बार-बार मुझे कुल्हाड़ा दिखाते हैं और फूँक से पहाड़ उड़ाना चाहते हैं। यहाँ कोई कुम्हड़बतिया (कमजोर व्यक्ति) नहीं , जो तर्जनी (सबसे आगे की) उंगुली को देखते ही मर जाए। कुठार और धनुष-बाण देखकर ही मैंने अभिमान वश कहा था। भृगुवंशी समझकर और जनेऊ देखकर जो कुछ आप कहते हैं, उसे मैं क्रोध रोककर सह लेता हूँ। हमारे कुल में देवता, ब्राह्मण, ईश्वर भक्त और गाय इन सब पर वीरता नहीं दिखाई जाती। इनका वध करने से पाप लगता है और इनसे हार जाने पर अपकीर्ति होती है इसलिए यदि आप मारें, तो भी आपके पैर ही छूने चाहिए। आपका एक-एक वचन करोड़ों वज्रों के समान कठोर है। धनुष-बाण और कुठारा तो आप व्यर्थ ही धारण करते हैं। इन्हें देखकर यदि मैंने कुछ अनुचित कहा हो, तो उसे हे धीर महामुनि क्षमा करें।” यह सुनकर भृगुवंश मुनि परशुराम जी क्रोध के साथ गंभीर वाणी में बोले।

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                       काव्यांश-  4

संकेतः-  कौसिकु सुनहु मंद येहु....  कायर कथहिं प्रतापु। 

शब्दार्थः-  कौसिक = विश्वामित्र, निजकुल घालकु = कुल के लिए घातक, भानुबंस र्यवंश; निरंकुस = = जिस पर किसी का अंकुश न हो, असंकू शंका रहित, लकवलू = मृत्यु का ग्रास, खोरि= दोष / खोट ।

भावार्थ:-- हे विश्वामित्र! सुनो, यह बालक बड़ा मंदबुद्धि और कुटिल है। काल के वश में होकर यह अपने कुल का घातक बन रहा है। यह सूर्यवंश रूपी पूर्णच का कलंक है। यह बड़ा निरंकुश, मूर्ख और निडर है। क्षणभर में ही यह काल का ग्रास बन जाएगा। मैं जोर देकर कहता हूँ कि फिर भी मैं दोषी नहीं हूँ। यदि तुम इसे बचाना चाहते हो, तो हमारा यह यश, बल, क्रोध बताकर इसे मना कर दो इस पर लक्ष्मण जी ने कहा, “हे मुनि! आपका सुयश आपके रहते कोई और कैसे वर्णन कर सकता है? आपने अपने मुँह से अपनी करनी का अनेक बार, अनेक प्रकार से वर्णन किया है। इतने पर भी संतोष न हुआ हो, तो फिर कुछ कह दीजिए। क्रोध को रोककर दुस्सह दुख मत सहिए। आप वीरता का व्रत धारण करने वाले धैर्यवान और क्षोभ रहित हैं, गाली देते आप शोभा नहीं पाते। शूरवीर तो युद्ध में अपनी वीरता का कार्य करते हैं, वे कहकर बखान नहीं करते। शत्रु को युद्ध में उपस्थित पाकर कायर ही अपने प्रताप की डींग मारते हैं। 

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                        काव्यांश- 5

संकेत:--तुम्ह ती कालु हाँक...... अजहूँ न बूझ अबूझ।

शब्दार्थ:-  हाँक = आवाज लगाकर, घोरा = भयानक, कटुवादी = कड़वा बोलने वाला, बध जोग = वध के योग्य, बाँचा = बचाया, छमिअ = क्षमा, अकरुण = जिसमें करुणा न हो, गाधिसु (विश्वामित्र = गाधि के पुत्र), अयमय = लोहे से बना हुआ ।

भावार्थः--  लक्ष्मण जी ने कहा- मानो आप तो काल को हाँक लगा-लगा कर उसे बार-बार मेरे लिए बुलाते हो। लक्ष्मण जी के कठोर वचन सुनते ही परशुराम जी ने अपने भयानक फरसे को ठीक से अपने हाथ में ले लिया। फिर वे बोले-अब लोग मुझे दोष न दें, यह कड़वा बोलने वाला बालक वध के योग्य है। इसे बालक जानकर बहुत बचाया, परंतु अब यह सचमुच ही मरने को आ गया है। विश्वामित्र ने कहा-अपराध क्षमा कीजिए, साधु लोग बालकों के गुण-दोष नहीं देखते। परशुराम जी बोले-मैं दया रहित, क्रोधी तथा गुरुद्रोही अपराधी को, जो मेरे सामने ही मुझे उत्तर दे रहा है, इतने पर भी मैं बिना मारे छोड़ रहा हूँ, वह भी हे विश्वामित्र! तुम्हारे शील स्वभाव के कारण। नहीं तो इसे कठोर कुठार से काटकर थोड़े-से ही परिश्रम से मैं गुरु के ऋण से उऋण हो सकता हूँ। विश्वामित्र जी ने मन ही मन हँसकर कहा-मुनि को सब हरा ही हरा सूझ रहा है (अर्थात् सर्वत्र विजयी होने के कारण ये श्रीराम और लक्ष्मण को साधारण क्षत्रिय समझ रहे है किंतु इनकी यह तलवार ऊख की (रस की) खाँड नहीं है, जो मुँह में लेते ही गल जाए बल्कि लोहे का बना हुआ तेज खाँड़ा (तलवार) हैं। अर्थात् मुनि अभी तक अनजान बने हुए हैं, वे राम-लक्ष्मण के प्रभाव को समझ नहीं पा रहे।

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                        काव्यांश-  6

संकेत:-- कहेउ लखन मुनि...... . वचन बोले रघुकुलभान्।

शब्दार्थ:-  नीकें = अच्छी तरह, व्यवहरिआ = हिसाब-किताब रखने वाला, नृपद्रोही = राजाओं का शत्रु, सुभट = बलवान, द्विज = ब्राह्मण, कृसानु = अग्नि सयनहि, नेवारे = मना किया

भावार्थ:-- हे मुनि आपके भावार्थ लक्ष्मण ने परशुराम पर व्यंग्य बाण छोड़ते हुए कहा, शील को कौन नहीं जानता? आपका शील तो विश्वभर में प्रसिद्ध है। आप अपने माता-पिता के ऋण से तो अच्छी प्रकार उऋण हो गए हैं। (परशुराम ने अपने पिता के कहने से अपनी माता का का कर दिया था। अब गुरु का रह गया। अब लगता है आपके जी में उस ऋण को उतार देने की चाह है। लगता है। यह ऋण उतारना हमारे ही मत्थे मढ़ा है अर्थात् यह ऋण हमें ही उतारना पड़ा बहुत वर्ष बीत गए है, अब तो ब्याज भी बहुत बढ़ गया होगा। अब व्यवहार करने का समय आ गया है। किसी अच्छे हिसाब-किताब करने वाले को बुला लीजिए जिससे में थैली खोलकर हिसाब चुकता कर दूं। लक्ष्मण के इन वचनों को सुनकर परशुराम आग-बबूला हो गए। उन्होंने कुठार संभाल लिया। उनके इस रूप को देखकर सारी सभा में हाहाकार मच गया। लक्ष्मण ने फिर कहा, है मृगुश्रेष्ठ यह राजाओं के शत्रु! मैं आपको अभी तक ब्राह्मण जानकर बचा रहा हूँ। लगता है आपको कभी रणकुशल बलवान वीर नहीं मिले। हे ब्राह्मण देवता! आप घर में बढ़े ही शेर बनते हो। यह सुनकर सब लोग कहने लगे कि यह अनुचित है, अनुचित है, तब श्रीराम ने इशारे से लक्ष्मण को रोक दिया।

लक्ष्मण के वचन यज्ञ में आहुति का काम कर रहे थे, जिससे परशुराम जी की क्रोध रूपी अग्नि बढ़ रही थी। इस अग्नि को बढ़ते देख श्रीराम ने जल के समान शीतल वचनों से मुनिवर को शांत करने का प्रयास किया।

                    प्रश्न- अभ्यास

प्रश्न 1. परशुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने धनुष के टूट जाने के लिए कौन-कौन से तर्क दिए? 

उत्तरः-  धनुष टूटने पर जब परशुराम ने क्रोध प्रकट किया, तब लक्ष्मण ने निम्नलिखित तर्क दिए :--

• हम तो इस धनुष को अन्य धनुषों के समान साधारण धनुष समझ रहे थे।

• श्रीराम ने तो इसे नया ही समझा था। 

• यह धनुष तो पुराने होने के कारण श्रीराम के छूने मात्र से ही टूट गया। इसमें उनका कोई दोष नहीं। 

• हम धनुष को तोड़ने में लाभ-हानि नहीं देखते।

प्रश्न 2. परशुराम के क्रोध करने पर राम और लक्ष्मण की जो प्रतिक्रियाएँ हुई,  उनके आधार पर दोनों के स्वभाव की विशेषताएँ अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तरः-  

राम के स्वभाव की विशेषताएँ :--

• राम स्वभाव से कोमल और विनयशील हैं। 

• उनके मन में बड़ों के प्रति श्रद्धा और आदर है। 

• वे गुरुजनों के सामने झुकना अपना धर्म समझते हैं। 

• वे महाक्रोधी परशुराम के बिना बात क्रुद्ध होने पर 

  भी स्वयं को उनका दास कहते हैं। 

• उनके वचन अग्नि में जल के समान शीतल थे। 

इस प्रकार,परशुराम का भी वे दिल जीत लेते हैं। 

लक्ष्मण के स्वभाव की विशेषताएँ :-

• लक्ष्मण  उग्र स्वभाव के थे। 

• उनकी व्यंग्योक्तियों ने परशुराम के क्रोध को और अधिक भड़का दिया। 

• उनकी उग्रता और कठोर वचनों को सुनकर परशुराम क्रोध में आकर और अधिक उत्तेजित हो जाते हैं। 

• यहाँ तक कि सभाजन भी उन्हें अनुचित कहने लगते हैं। 

• लक्ष्मण के वचन अग्नि में घी के समान हैं। 

• लक्ष्मण वीर, साहसी और निडर हैं इसलिए परशुराम के क्रोध और फरसे से आतंकित नहीं होते।

प्रश्न 3. लक्ष्मण और परशुराम के संवाद का जो अंश आपको सबसे अच्छा लगा हो, उसे अपने शब्दों में संवाद शैली में लिखिए।

उत्तरः-  लक्ष्मण परशुराम संवाद का निम्नलिखित दृश्य सबसे अधिक रोचक है। 

लक्ष्मणः- हे मुनि! हमारे लिए तो सभी धनुष एक समान हैं। 

परशुरामः- यह कोई साधारण धनुष नहीं था, यह शिवजी का धनुष था। 

लक्ष्मणः- यह पुराना धनुष तो छूने मात्र से टूट गया। 

राम ने तो इसको नया समझा था।

परशुरामः- अब तुम्हारी खैर नहीं, तुम्हें अब कोई नहीं बचा सकता। 

लक्ष्मणः-  यह तो छूने से टूट गया, भला इसमें राम का क्या दोष ? 

परशुरामः- मैं तुझे बालक समझकर नहीं मार रहा, तुम मेरे क्रोध को नहीं जानते। मैंने अनेक बार इस पृथ्वी को क्षत्रियों से खाली कर दिया है।

प्रश्न 5. लक्ष्मण ने वीर योद्धा की क्या-क्या विशेषताएँ बताई?

उत्तरः-  लक्ष्मण ने वीर योद्धा की निम्नलिखित विशेषताएँ बताई ?

• वीर योद्धा अपनी वीरता का बखान अपने मुँह से नहीं करते। 

• अपने बल का बखान करना तो कायरों का काम है।

• वीर व्यक्ति धैर्यवान और क्षोभ रहित होता है। 

• वीर योद्धा अपनी बड़ाई स्वयं नहीं करते और न ही अपशब्द बोलते हैं।

प्रश्न 6. साहस और शक्ति के साथ विनम्रता हो तो बेहतर है। इस कथन पर अपने विचार लिखिए।

उत्तर:- साहस और शक्ति एक योद्धा के अनिवार्य गुण हैं। यदि इन गुणों के विनम्रता हो तो अकारण ही होने वाला कोई विवाद या युद्ध नहीं हो पाता। विनम्र व्यक्ति अपनी विनम्रता से शत्रु के क्रोध को शांत कर देता है। क्रोध क्षणिक होता है, एक बार शांत होने पर विवेक जागृत होता है और अनर्थ होने से ब जाता है।

परशुराम और लक्ष्मण दोनों के उदाहरण हमारे सामने हैं। परशुराम पराक्रमी है किंतु स्वयं को महापराक्रमी, बाल-ब्रह्मचारी, क्षत्रियकुल घातक कहना उनके घमण्ड को दर्शाता है। लक्ष्मण का साहस हमें भला लगता है. किंतु यह भी अपनी सीमाएँ तोड़ देते हैं। धीरे-धीरे वह बहुत उग्र, कठोर और असहज हो जाते हैं. इस कारण सभी सभाजन उसके विरुद्ध हो जाते हैं। दूसरी ओर रामचंद्र शक्ति और साहस के साथ विनम्रता का भी परिचय देते हैं। इसलिए वे सबका दिल जीत लेते हैं।

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