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कक्षा- 9 पुस्तक- क्षितिज पाठ- उपभोक्तावाद की संस्कृति पाठ का सारांश प्रश्नोत्तर CLASS -9 BOOK - KHISTIJ PART -1 LESSON- UPBHOKTAVAAD KI SANSKRITI SUMARY OF LESSON QUESTIONS AND ANSWERS

कक्षा- 9 पुस्तक- क्षितिज भाग -1 पाठ- उपभोक्तावाद की संस्कृति पाठ का सारांश  प्रश्नोत्तर  CLASS -9 BOOK - KHISTIJ PART -1 LESSON- UPBHOKTAVAA...

कक्षा- 9

पुस्तक- क्षितिज भाग -1

पाठ- उपभोक्तावाद की संस्कृति

पाठ का सारांश 

प्रश्नोत्तर 

CLASS -9

BOOK - KHISTIJ PART -1

LESSON- UPBHOKTAVAAD KI SANSKRITI

SUMARY OF LESSON 

QUESTIONS AND ANSWERS 



पाठ- उपभोक्तावाद की संस्कृति

    लेखक:- श्री श्यामाचरण दुबे जी



पाठ का सारांश :--

यह निबंध श्यामाचरण दुबे द्वारा रचित है। इसमें उन्होंने भोगवाद का प्रबल विरोध किया है। निबंध का सार इस

बदलती जीवन-शैली:- धीरे-धीरे हमारी जीवन-शैली बदल रही है। उपभोक्तावाद बढ़ रहा है। चारों ओर उत्पादन बढ़ाने पर जोर है। दुख है कि उपभोग को ही 'सुख' मान लिया गया है। उत्पादों का भोग करते-करते हम उत्पादों को ही समर्पित होते जा रहे हैं।

विलासितापूर्ण सामग्री का प्रसारः- बाजार में विलासितापूर्ण सामग्री की भरमार है। विज्ञापन मनुष्य को लुभाने में लगे हुए हैं। टूथपेस्ट हो या टूथ ब्रुश या सौंदर्य प्रसाधन-सभी की विशेषताएँ तरह-तरह से बताई जा रही हैं। हरेक विज्ञापन नए तरीके से लुभाता है। कोई गुणवत्ता बताता है, कोई ऋषि-मुनियों के नाम लेता है, कोई फिल्मी सितारों का हवाला देता है।

फैशन की होड़ः- सौंदर्य-प्रसाधनों की ऐसी होड़ लग गई है कि संभ्रांत महिलाओं की ड्रेसिंग टेबल पर तीस-तीस हज़ार की सौंदर्य-सामग्री इकट्ठी हो जाती है। आज के पुरुष भी कम नहीं हैं। वे भी अब साबुन-तेल से आगे आफ़्टर शेव और कोलोन लगाने लगे हैं। जगह-जगह नए डिज़ाइन के वस्त्र बेचने वाले बुटीक खुल गए हैं। घड़ी में भी अब समय नहीं देखा जाता, शान देखी जाती है। लोग लाख-डेढ़- -लाख की घड़ी खरीदने लगे हैं।

प्रतिष्ठा के लिए खरीद:- आज लोग आवश्यकता की बजाय प्रतिष्ठा के लिए वस्तुएँ खरीदने लगे हैं। म्यूजिक सिस्टम हो या कंप्यूटर- बहुत-से लोग दिखावे के लिए खरीदते हैं। खाने के लिए पाँच सितारा होटल। इलाज के लिए पाँच सितारा | हस्पताल । बच्चों की शिक्षा के लिए पाँच सितारा पब्लिक स्कूल । यहाँ तक कि लोग पैसे के बल पर अपने अंतिम संस्कार का भी शानदार प्रबंध करने लगे हैं।

उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रसारः-ऊपर की सब बातें उपभोक्तावादी समाज की एक झलक प्रस्तुत करती हैं। इनका जनक है एक विशिष्ट समाज। परंतु सामान्य जन भी इसे ललचाई निगाहों से देखते हैं।

उपभोक्तावाद का प्रसार क्यों ?:-- उपभोक्तावाद का प्रसार सामती संस्कृति के कारण हो रहा है। ये सामती तत्त्व आज भी भारत में हैं। केवल सामंत बदल गए हैं। हमारी सांस्कृतिक पहचान, परंपराएँ, आस्थाएँ धीरे-धीरे नष्ट हो रही हैं। हम पश्चिमी संस्कृति का अंधानुकरण कर रहे हैं। अपनी प्रतिष्ठा बनाने के लिए हम आधुनिकता का छल कर रहे हैं। हमारी संस्कृति की पकड़ ढीली हो गई है। इसलिए दिग्भ्रमित होकर हम किसी और से निर्देशित हो रहे हैं। विज्ञापन और प्रचार प्रसार की शक्तियाँ हमें सम्मोहित कर रही हैं।

उपभोक्तावाद का दुष्परिणामः-- इस संस्कृति के कारण हमारे सीमित संसाधनों का अपव्यय हो रहा है। सामाजिक संबंधों में दूरी आ रही है। जीवन-स्तर का अंतर अशांति को बढ़ा रहा है। सांस्कृतिक पहचान नष्ट हो रही है। विकास का उद्देश्य नष्ट हो रहा है। मर्यादाएँ टूट रही हैं। जीवन व्यक्ति-केंद्रित हो चला है। भोग की आकांक्षाएँ आसमान को छू रही है।

उपभोक्तावाद : एक खतरा:- गाँधी जी ने कहा था- हम सब ओर से स्वस्थ सांस्कृतिक प्रभाव को अवश्य स्वीकार करें किंतु अपनी बुनियाद न छोड़ें। उपभोक्तावादी संस्कृति हमारी इसी नींव को ही चुनौती दे रही है।

प्रश्नोत्तर:--

प्रश्न 1. लेखक के अनुसार जीवन में 'सुख' से क्या अभिप्राय है? 

उत्तर- लेखक के अनुसार, जीवन में 'सुख' का अभिप्राय केवल उपभोग सुख नहीं है। अन्य प्रकार के शारीरिक और सूक्ष्म आराम भी 'सुख' कहलाते हैं। परंतु आजकल लोग केवल उपभोग-सुख को 'सुख' कहने लगे है।  

प्रश्न 2. आज की उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे दैनिक जीवन को किस प्रकार प्रभावित कर रही है? 

                         अथवा

आज की उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे दैनिक जीवन को किस प्रकार बदल रही है? 

                         अथवा

उपभोक्तावादी संस्कृति के क्या दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं?

                        अथवा

उपभोक्तावाद ने भारतीय संस्कृति को किस प्रकार हानि पहुँचाई है?

उत्तर- आज की उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे दैनिक जीवन को पूरी तरह प्रभावित कर रही है। हम वही खाते-पीते औ पहनते ओढ़ते हैं जो आज के विज्ञापन कहते हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण हम धीरे-धीरे उपभोगों के दास बनते व रहे हैं। हम अपनी ज़रूरतों को अनावश्यक रूप से बढ़ाते जा रहे हैं। कई लोग तो केवल दिखावे के लिए महँगी घड़ियाँ कम आदि खरीद रहे हैं। प्रतिष्ठा के नाम पर हम पाँच सितारा संस्कृति के गुलाम होते जा रहे हैं।

इस संस्कृति का सबसे बुरा प्रभाव हमारे सामाजिक सरोकारों पर पड़ रहा है। हमारे सामाजिक संबंध घटते जा रहे है मन में अशांति और आक्रोश बढ़ रहे हैं। विकास का लक्ष्य दूर होता जा रहा है। हम जीवन के विशाल लक्ष्य से भटक हैं। सारी मर्यादाएँ और नैतिकताएँ टूट रही हैं। मनुष्य स्वार्थ-केंद्रित होता जा रहा है।

प्रश्न 3. लेखक ने उपभोक्ता संस्कृति को हमारे समाज के लिए चुनौती क्यों कहा है?

                  अथवा

उपभोक्तावादी संस्कृति के विषय में गाँधी जी के क्या विचार थे ?

उत्तरः- गाँधी जी सामाजिक मर्यादाओं तथा नैतिकता के पक्षधर थे। वे सादा जीवन उच्च विचार के कायल थे। थे कि समाज में आपसी प्रेम और संबंध बढ़ें। लोग संयम और नैतिकता का आचरण करें। उपभोक्तावादी संस्कृति इस सबके विपरीत चलती है। वह भोग को बढ़ावा देती है और नैतिकता तथा मर्यादा को तिलांजलि देती है। गाँधी जी चाहते थे कि हम भारतीय अपनी बुनियाद पर कायम रहें, अर्थात् अपनी संस्कृति को न त्यागें । परंतु आज उपभोक्तावादी संस्कृति के नाम पर हम अपनी सांस्कृतिक पहचान को भी मिटाते जा रहे हैं। इसलिए उन्होंने उपभोक्तावादी संस्कृति को हमारे समाज के लिए चुनौती कहा है।

प्रश्न 4. आशय स्पष्ट कीजिए :-

(क) जाने-अनजाने आज के माहौल में आपका चरित्र भी बदल रहा है और आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे है

उत्तर- उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रभाव अत्यंत सूक्ष्म है। इसके प्रभाव में आकर हमारा चरित्र बदलता जा रहा है। हम उत्पादों का उपभोग करते-करते उनके गुलाम होते जा रहे हैं। यहाँ तक कि हम जीवन का लक्ष्य ही उपभोग करना मान बैठे हैं। हम उत्पादों का उपभोग नहीं कर रहे बल्कि उत्पाद हमारे जीवन का भोग कर रहे हैं।

(ख) प्रतिष्ठा के अनेक रूप होते हैं, चाहे वे हास्यास्पद ही क्यों न हो।

उत्तर- सामाजिक प्रतिष्ठा अनेक प्रकार की होती है। प्रतिष्ठा के कई रूप तो बिल्कुल विचित्र होते हैं। उनके कारण हम हँसी के पात्र बन जाते हैं। जैसे अमरीका में लोग मरने से पहले अपनी समाधि का प्रबंध करने लगे हैं। वे धन देकर यह सुनिश्चित करते हैं उनकी समाधि के आसपास सदा हरियाली रहेगी और मनमोहक संगीत बजता रहेगा।

प्रश्न 5. कोई वस्तु हमारे लिए उपयोगी हो या न हो, लेकिन टी.वी. पर विज्ञापन देखकर हम उसे खरीदने के लिए अवश्य लालायित होते हैं? क्यों?

उत्तर- टी.वी. पर आने वाले विज्ञापन बहुत प्रभावशाली होते हैं। वे हमारी आँखों और कानों को विभिन्न दृश्यों और ध्वनियों के सहारे प्रभावित करते हैं। वे हमारे मन में वस्तुओं के प्रति भ्रामक आकर्षण जगा देते हैं। बच्चे उनके बिना रह ही नहीं पाते। ‘खाए जाओ, खाए जाओ', 'क्या करें, कंट्रोल ही नहीं होता', जैसे आकर्षण हमारी लार टपका देते हैं। इसलिए अनुपयोगी वस्तुएँ भी हमें लालायित कर देती हैं।

प्रश्न 6. आपके अनुसार वस्तुओं को खरीदने का आधार वस्तु की गुणवत्ता होनी चाहिए या उसका विज्ञापन ? तर्क देकर स्पष्ट करें।

                       अथवा

आपके अनुसार वस्तुओं को खरीदने का आधार वस्तु की गुणवत्ता होनी चाहिए या उसका विज्ञापन ?

उत्तर:- वस्तुओं को खरीदने का एक ही आधार होना चाहिए-वस्तु की गुणवत्ता । विज्ञापन हमें गुणवत्ता वाली वस्तुओं का परिचय करा सकते हैं। परंतु अधिकतर विज्ञापन भी भ्रम पैदा करते हैं। वे आकर्षक दृश्य दिखाकर गुणहीन वस्तुओं का प्रचार करते हैं। उदाहरणतया, चाय की पत्ती के विज्ञापन में लड़कियों के नाच का कोई काम नहीं। परंतु अधिकतर लोग नाच से इतने प्रभावित होते हैं कि दुकान पर खड़े होकर वही चायपत्ती खरीद लेते हैं, जिसका ताज़गी से कोई संबंध नहीं। हमें 'वाह ताज!' जैसे शब्दों के मोह में न पड़कर चाय की कड़क और स्वाद पर ध्यान देना चाहिए। वही हमारे काम की चीज़ है।

प्रश्न 7. पाठ के आधार पर आज के उपभोक्तावादी युग में पनप रही 'दिखावे की संस्कृति' पर विचार लिखिए। 

         अथवा

दिखावे की संस्कृति का हमारे समाज पर क्या प्रभाव पड़ रहा है? अपने शब्दों में वर्णन कीजिए।  

उत्तर- आज दिखावे की संस्कृति पनप रही है। यह बात बिल्कुल सत्य है। इसलिए लोग उन्हीं चीजों को अपना रहे हैं, नया की नजरों में अच्छी हैं। सारे सौंदर्य-प्रसाधन मनुष्यों को सुंदर दिखाने के ही प्रयास करते हैं। पहले यह दिखावा औरतों था. आजकल पुरुष भी इस दौड़ में आगे बढ़ चले हैं। नए-नए परिधान और फैशनेबल वस्त्र दिखावे की संस्कृति को हवा दे रहे हैं।

आज लोग समय देखने के लिए घड़ी नहीं खरीदते, बल्कि अपनी हैसियत दिखाने के लिए हजारों क्या लाखों रुपए की महनते हैं। आज हर चीज़ पाँच सितारा संस्कृति की हो गई है। खाने के लिए पाँच-सितारा होटल, इलाज के लिए पाँच हस्पताल, पढ़ाई के लिए पाँच सितारा सुविधाओं वाले विद्यालय - सब जगह दिखावे का ही साम्राज्य है। यहाँ तक कि मरने के बाद अपनी कब्र के लिए लाखों रुपए खर्च करने लगे हैं ताकि वे दुनिया में अपनी हैसियत के लिए पहचाने जा सके।

यह दिखावा-संस्कृति मनुष्य को मनुष्य से दूर कर रही है। लोगों के सामाजिक संबंध घटने लगे हैं। मन में अशांति जन्म ले रही  है। आक्रोश बढ़ रहा है, तनाव बढ़ रहा है। हम लक्ष्य से भटक रहे हैं। यह अशुभ है। इसे रोका जाना चाहिए।











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