कक्षा-12 आरोह भाग-2 पाठ- आत्मपरिचय , एक गीत , कवि - श्री हरिवंशराय राय बच्चन जी CLASS -12 AAROH PART -2 ATAM PRICHAY/ AK GEET POET- MR. ...
कक्षा-12
आरोह भाग-2
पाठ- आत्मपरिचय , एक गीत ,
कवि - श्री हरिवंशराय राय बच्चन जी
CLASS -12
AAROH PART -2
ATAM PRICHAY/ AK GEET
POET- MR. HARIVANSH RAI BACCHAN
पाठ- आत्मपरिचय
कवि- श्री हरिवंशराय राय बच्चन जी
जीवन परिचय:- कविवर हरिवंश राय बच्चन का जन्म 27 नवंबर सन 1907 को इलाहाबाद में हुआ था। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी विषय में एम०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की तथा 1942-1952 ई० तक यहीं पर प्राध्यापक रहे। उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय, इंग्लैंड से पी-एच०डी० की उपाधि प्राप्त की। अंग्रेजी कवि कीट्स पर उनका शोधकार्य बहुत चर्चित रहा। वे आकाशवाणी के साहित्यिक कार्यक्रमों से संबंध रहे और फिर विदेश मंत्रालय में हिंदी विशेषज्ञ रहे। उन्हें राज्यसभा के लिए भी मनोनीत किया गया। 1976 ई० में उन्हें 'पद्मभूषण' से अलंकृत किया गया। 'दो चट्टानें' नामक रचना पर उन्हें साहित्य अकादमी ने भी पुरस्कृत किया। उनका निधन 2003 ई० में मुंबई में हुआ।
रचनाएँ:- हरिवंश राय बच्चन की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं:--
(i) काव्य-संग्रह-मधुशाला (1935), मधुबाला (1938), मधुकलश (1938), निशा-निमंत्रण, एकांत संगीत, आकुल-अंतर मिलनयामिनी, सतरंगिणी, आरती और अंगारे, नए-पुराने झरोखे, टूटी-फूटी कड़ियाँ।
(ii) आत्मकथा:-- क्या भूलूँ क्या याद करूँ, नीड़ का निर्माण फिर, बसेरे से दूर, दशद्वार से सोपान तक।
(iii) अनुवाद:- हैमलेट, जनगीता, मैकबेथ। (iv) डायरी-प्रवासी की डायरी।
काव्यगत विशेषताएँ :- बच्चन हालावाद के सर्वश्रेष्ठ कवियों में से एक हैं। दोनों महायुद्धों के बीच मध्यवर्ग के विक्षुब्ध विकल मन को बच्चन ने वाणी दी। उन्होंने छायावाद की लाक्षणिक वक्रता की बजाय सीधी-सादी जीवंत भाषा और संवेदना से युक्त गेय शैली में अपनी बात कही। उन्होंने व्यक्तिगत जीवन में घटी घटनाओं की सहजअनुभूति की ईमानदार अभिव्यक्ति कविता के माध्यम से है। यही विशेषता हिंदी काव्य-संसार में उनकी प्रसिद्धि का मूलाधार है।
भाषा-शैली:- कवि ने अपनी अनुभूतियाँ सहज स्वाभाविक ढंग से कही हैं। इनकी भाषा आम व्यक्ति के निकट है। बच्चन से कवि-रूप सबसे विख्यात है उन्होंने कहानी, नाटक, डायरी आदि के साथ बेहतरीन आत्मकथा भी लिखी है। इनकी रचनाएँ ईमानदा आत्मस्वीकृति और प्रांजल शैली के कारण आज भी पठनीय हैं।
'आत्मपरिचय' कविता का प्रतिपाद्य एवं सारः-
प्रतिपाद्य:-- कवि का मानना है कि स्वयं को जानना दुनिया को जानने से ज्यादा कठिन है। समाज से व्यक्ति का नाता खट्टा-मीठा ते होता ही है। संसार से पूरी तरह निरपेक्ष रहना संभव नहीं। दुनिया अपने व्यंग्य-बाण तथा शासन-प्रशासन से चाहे जितना कष्ट दे, पर दुनिया से कटकर मनुष्य रह भी नहीं पाता। क्योंकि उसकी अपनी अस्मिता, अपनी पहचान का उत्स, उसका परिवेश ही उसकी दुनिया है। कवि अपना परिचय देते हुए लगातार दुनिया से अपने द्विधात्मक और द्वंद्वात्मक संबंधों का मर्म उद्घाटित करता चलता है। वह पूरी कविता का सार एक पंक्ति में कह देता है कि दुनिया से मेरा संबंध प्रीतिकलह का है, मेरा जीवन विरुद्धों का सामंजस्य है- उन्मादों में अवसाद, रोदन में राग, शीतल वाणी में आग, विरुद्धों का विरोधाभासमूलक सामंजस्य साधते-साधते ही वह बेखुदी, वह मस्ती, वह दीवानगी व्यक्तित्व में उतर आई है कि दुनिया में हूँ, दुनिया का तलबगार नहीं हूँ। बाज़ार से गुज़रा हूँ, खरीदार नहीं हूँ-जैसा कुछ कहने का ठस्सा पैदा हुआ है। यह ठस्सा ही छायावादोत्तर गीतिकाव्य का प्राण है। किसी असंभव आदर्श की तलाश में सारी दुनियादारी ठुकराकर उस भाव से कि जैसे दुनिया से इन्हें कोई वास्ता ही नहीं है।
सार:--कवि कहता है कि यद्यपि वह सांसारिक कठिनाइयों से जूझ रहा है, फिर भी वह इस जीवन से प्यार करता है। वह अपनी आशाओं और निराशाओं से संतुष्ट है। वह संसार से मिले प्रेम व स्नेह की परवाह नहीं करता क्योंकि संसार उन्हीं लोगों की जयकार करता है जो उसकी इच्छानुसार व्यवहार करते हैं। वह अपनी धुन में रहने वाला व्यक्ति है। वह निरर्थक कल्पनाओं में विश्वास नहीं रखता क्योंकि यह संसार कभी भी किसी की इच्छाओं को पूर्ण नहीं कर पाया है। कवि सुख-दुख, यश-अपयश, हानि-लाभ आदि द्वंद्वात्मक परिस्थितियों में एक जैसा रहता है। यह संसार मिथ्या है, अतः यहाँ स्थायी वस्तु की कामना करना व्यर्थ है। कवि संतोषी प्रवृत्ति का है। वह अपनी वाणी के ज़रिये अपना आक्रोश व्यक्त करता है। उसकी व्यथा शब्दों के माध्यम से प्रकट होती है तो संसार उसे गाना मानता है। संसार उसे कवि कहता है, परंतु वह स्वयं को नया दीवाना मानता है। वह संसार को अपने गीतों, द्वंद्वों के माध्यम से प्रसन्न करने का प्रयास करता है। कवि सभी को सामंजस्य बनाए रखने के लिए कहता है।
'एक गीत' कविता का प्रतिपाद्य एवं सार:--
प्रतिपाद्य-निशा-निमंत्रण से उद्धृत इस गीत में कवि प्रकृति की दैनिक परिवर्तनशीलता के संदर्भ में प्राणी-वर्ग के धड़कते हृदय को सुनने की काव्यात्मक कोशिश व्यक्त करता है। किसी प्रिय आलंबन या विषय से भावी साक्षात्कार का आश्वासन ही हमारे प्रयास के पगों की गति में चंचल तेज़ी भर सकता है- अन्यथा हम शिथिलता और फिर जड़ता को प्राप्त होने के अभिशिप्त हो जाते हैं। यह गीत इस बड़े सत्य के साथ समय के गुज़रते जाने के एहसास में लक्ष्य प्राप्ति के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा भी लिए हुए है।
सारः-- कवि कहता है कि साँझ घिरते ही पथिक लक्ष्य की ओर तेज़ी से कदम बढ़ाने लगता है। उसे रास्ते में रात होने का भय होता है। जीवन-पथ पर चलते हुए व्यक्ति जब अपने लक्ष्य के निकट होता है तो उसकी उत्सुकता और बढ़ जाती है। पक्षी भी बच्चों की चिंता करके तेजी से पंख फड़फड़ाने लगते हैं। अपनी संतान से मिलने की चाह में हर प्राणी आतुर हो जाता है। आशा व्यक्ति के जीवन में नई चेतना भर देती है। जिनके जीवन में कोई आशा नहीं होती, वे शिथिल हो जाते हैं। उनका जीवन नीरस हो जाता है। उनके भीतर उत्साह समाप्त हो जाता है। अतः रात जीवन में निराशा नहीं, अपितु आशा का संचार भी करती है।
निम्नलखित काव्यांशों को ध्यानपूर्वक पढ़कर सप्रसंग व्याख्या कीजिए और नीचे दिए प्रश्नों के उत्तर कीजिए:--
(क) आत्मपरिचय:--
1.
मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता है,
कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर,
मैं साँसों के दो तार लिए फिरता हूँ।
मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ,
जग पूछ रहा उनको, जो जग को गाते,
मैं अपने मन का गान किया करता हूँ।
शाब्दार्थ - जग-जीवन-सांसारिक गतिविधि । झंकृत-तारों को बजाकर स्वर निकालना। सुरा - शराब। स्नेह- प्रेम। पान - पीना । ध्यान करना -परवाह करना। गाते-प्रशंसा करते
प्रसंगः- प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह, भाग-2' में संकलित कविता' आत्मपरिचय' से उद्धृत है। इसके रचयिता प्रसिद्ध गीतकार हरिवंश राय बच्चन जी हैं। इस कविता में कवि जीवन जीने की शैली बताता है तथा दुनिया से अपने द्वंद्वात्मक संबंधों को उजागर करता है।
व्याख्या: -बच्चन जी कहते हैं कि में संसार में जीवन का भार उठाकर घूमता रहता हूँ। इसके बावजूद मेरा जीवन प्यार से भरा-पूरा है। जीवन की समस्याओं के बावजूद कवि के जीवन में प्यार है। उसका जीवन सितार की तरह है जिसे किसी ने छूकर झंकृत कर दिया है। फलस्वरूप उसका जीवन संगीत से भर उठा है। उसका जीवन इन्हीं तार रूपी साँसों के कारण चल रहा है। उसने स्नेह रूपी शराब पी रखी है अर्थात प्रेम किया है तथा बाँटा है। उसने कभी संसार की परवाह नहीं की। संसार के लोगों की प्रवृत्ति है कि वे उनको पूछते हैं जो संसार के अनुसार चलते हैं तथा उनका गुणगान करते हैं। कवि अपने मन की इच्छानुसार चलता है, अर्थात वह वही करता है जो उसका मन कहता है।
विशेष:-
(1) कवि ने निजी प्रेम को स्वीकार किया है।
(ii) संसार के स्वार्थी स्वभाव पर टिप्पणी की है।
(iii) 'स्नेह-सुरा' व 'साँसों के तार' में रूपक अलंकार है।
(iv) 'जग-जीवन', 'स्नेह-सुरा' में अनुप्रास अलंकार है।
(v) खड़ी बोली का प्रयोग है।
(vi) 'किया करता हूँ ', 'लिए फिरता हूँ' को आवृत्ति में गीत की मस्ती है।
प्रश्नः-
(क) जगजीवन का भार लिए फिरने से कवि का क्या आशय है? ऐसे में भी वह क्या कर लेता है?
(ख) 'स्नेह-सुरा' से कवि का क्या आशय है?
(ग) आशय स्पष्ट कीजिए-
जग पूछ रहा उनको, जो जग की गाते।
(घ) 'साँसों के तार' से कवि का क्या तात्पर्य है? आपके विचार से उन्हें किसने झंकृत किया होगा?
उत्तर :-
(क) 'जगजीवन का भार लिए फिरने' से कवि का आशय है-सांसारिक रिश्ते-नातों और दायित्वों को निभाने की जिम्मेदारी, जिन्हें न चाहते हुए भी कवि को निभाना पड़ रहा है। ऐसे में भी उसका जीवन प्रेम से भरा-पूरा है और यह सबसे प्रेम करना चाहता है।
(ख) 'स्नेह-सुरा' से आशय है-प्रेम की मादकता और उसका पागलपन, जिसे कवि हर क्षण महसूस करता है और उसका मन झंकृत होता रहता है।
(ग) 'जग पूछ रहा उनको, जो जग की गाते' का आशय है-यह संसार उन लोगों की स्तुति करता है जो संसार के अनुसार चलते हैं और उसका गुणगान करते है।
(घ) 'साँसों के तार' से कवि का तात्पर्य है-उसके जीवन में भरा प्रेम रूपी तार, जिनके कारण उसका जीवन घात रहा है। मेरे विचार से उन्हें कवि की प्रेयसी ने झंकृत किया होगा।
2.
मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,
मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ,
है यह अपूर्ण संसार न मुझको भाता,
मैं स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूँ!
मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,
सुख-दुख दोनों में मग्न रहा करता है,
जग भय-सागर तरने को नाव बनाए,
मैं भव-मौजों पर मस्त बहा करता हूँ।
शब्दार्थः-उद्गार-दिल के भाव। उपहार - भेंट। भाता- अच्छा लगता। स्वप्नों का संसार- कल्पनाओं की दुनिया। दहा-जला।भव-सागर-संसार रूपी सागर। मौजो- लहरों।
प्रसंगः-प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह, भाग-2' में संकलित कविता 'आत्मपरिचय' से अवतरित है। इसके रचयिता प्रसिद्ध गीतकार हरिवंश राय बच्चन हैं। इस कविता में कवि जीवन को जीने की शैली बताता है। साथ ही दुनिया से अपने द्वंद्वात्मक संबंधों को उजागर करता है।
व्याख्या:-कवि अपने मन की भावनाओं को दुनिया के सामने कहने की कोशिश करता है। उसे खुशी के जो उपहार मिले हैं, उन्हें पा साथ लिए फिरता है। उसे यह संसार अधूरा लगता है। इस कारण यह उसे पसंद नहीं है। यह अपनी कल्पना का संसार लिए फिरत है। उसे प्रेम से भरा संसार अच्छा लगता है।
वह कहता है कि मैं अपने हृदय में आग जलाकर उसमें जलता हूँ अर्थात में प्रेम की जलन को स्वयं ही सहन करता हूँ। प्रेम की
दीवानगी में मस्त होकर जीवन के जो सुख-दुख आते हैं, उनमें मस्त रहता हूँ। यह संसार आपदाओं का सागर है। लोग इसे पार कारे के लिए कर्म रूपी नाव बनाते हैं, परंतु कवि संसार रूपी सागर की लहरों पर मस्त होकर बहता है। उसे संसार की कोई चिंता नहीं है।
विशेषः-
(1) कवि ने प्रेम की मस्ती को प्रमुखता दी है।
(ii) व्यक्तिवादी विचारधारा की प्रमुखता है।
(iii) 'स्वप्नों का संसार' में अनुप्रास तथा ' भव सागर' और 'भव मौजों' में रूपक अलंकार है।
(iv) खड़ी बोली का स्वाभाविक प्रयोग है।
(v) तत्सम शब्दावली की बहुलता है।
(vi) श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति है।
प्रश्नः-
(क) कवि के हृदय में कौन-सी अग्नि जल रही है? वह व्यथित क्यों है?
(ख) 'निज उर के उद्गार व उपहार' से कवि का क्या तात्पर्य है? स्पष्ट कीजिए।
(ग) कवि को संसार अच्छा क्यों नहीं लगता?
(घ) संसार में कष्टों को सहकर भी खुशी का माहौल कैसे बनाया जा सकता है?
उत्तरः-
(क) कवि के हृदय में एक विशेष आग (प्रेमाग्नि) जल रही है। वह प्रेम की वियोगावस्था में होने के कारण व्यथित है।
(ख) 'निज उर के उद्गार' का अर्थ यह है कि कवि अपने हृदय की भावनाओं को व्यक्त कर रहा है। 'निज उर के उपहार' से तात्पर्य कवि की खुशियों से है जिसे वह संसार में बाँटना चाहता है।
(ग) कवि को संसार इसलिए अच्छा नहीं लगता क्योंकि उसके दृष्टिकोण के अनुसार संसार अधूरा है। उसमें प्रेम नहीं है। वह बनावटी व झूठा है।
(घ)संसार में रहते हुए हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि कष्टों को सहना पड़ेगा। इसलिए मनुष्य को हँसते हुए जीना चाहिए।
3.
मैं यौवन का उन्माद लिए फिरता हूँ,
उन्मादों में अवसाद लिए फिरता हूँ,
जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ!
कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना ?
नादान वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना !
फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे ?
मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भुलाना !
शब्दार्थः- यौवन-जवानी। उन्माद-पागलपन। अवसाद-उदासी, खेद। यत्न-प्रयास। नादान-नासमझ, अनाड़ी। दाना-चतुर, जानी। मूढ़-मूर्ख। जग-संसार।
प्रसंगः-प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह, भाग-2' में संकलित कविता 'आत्मपरिचय' से उद्धृत है। इसके रचयिता प्रसिद्ध गीतकार हरिवंश राय बच्चन जी हैं। इस कविता में कवि जीवन को जीने की शैली बताता है। साथ ही दुनिया से अपने द्वंद्वात्मक संबंधों को उजागर करता है।
व्ख्याया-कवि कहता है कि उसके मन पर जवानी का पागलपन सवार है। वह उसकी मस्ती में घूमता रहता है। इस दीवानेपन के कारण उसे अनेक दुख भी मिले हैं। वह इन दुखों को उठाए हुए घूमता है। कवि को जब किसी प्रिय की याद आ जाती है तो उसे बाहर से हँसा जाती है, परंतु उसका मन रो देता है अर्थात याद आने पर कवि-मन व्याकुल हो जाता है।
कवि कहता है कि इस संसार में लोगों ने जीवन-सत्य को जानने की कोशिश की, परंतु कोई भी सत्य नहीं जान पाया। इस कारण हर व्यक्ति नादानी करता दिखाई देता है। ये मूर्ख (नादान) भी वहीं होते हैं जहाँ समझदार एवं चतुर होते हैं। हर व्यक्ति वैभव, समृद्धि, भोग-सामग्री की तरफ भाग रहा है। हर व्यक्ति अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए भाग रहा है। वे इतना सत्य भी नहीं सीख सके। कवि कहता है कि मैं सीखे हुए ज्ञान को भूलकर नई बातें सीख रहा हूँ अर्थात सांसारिक ज्ञान की बातों को भूलकर मैं अपने मन के कहेअनुसार चलना सीख रहा हूँ।
विशेष:-
(i) पहली चार पंक्तियों में कवि ने आत्माभिव्यक्ति की है तथा अंतिम चार में सांसारिक जीवन के विषय में बताया है।
(ii) 'उन्मादों में अवसाद' में विरोधाभास अलंकार है।
(iii) 'लिए फिरता हूँ' की आवृत्ति से गेयता का गुण उत्पन्न हुआ है।
(iv) 'कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना' पंक्ति में अनुप्रास अलंकार है।
(v) 'नादान वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना' में सूक्ति जैसा प्रभाव है।
(vi) खड़ी बोली है।
प्रश्नः-
(क) 'यौवन का उन्माद' का तात्पर्य बताइए।
(ख) कवि की मनःस्थिति कैसी है?
(ग) 'नादान' कौन है तथा क्यों?
(घ) संसार के बारे में कवि क्या कह रहा है?
(ङ) कवि सीखे ज्ञान को क्यों भुला रहा है?
उत्तरः-
(क) कवि प्रेम का दीवाना है। उस पर प्रेम का नशा छाया हुआ है, परंतु उसकी प्रिया उसके पास नहीं है, अतः वह निराश भी है।
(ख) कवि संसार के समक्ष हँसता दिखाई देता है, परंतु अंदर से वह रो रहा है क्योंकि उसे अपनी प्रिया की याद आ जाती है।
(ग) कवि ने स्वार्थी तथा भौतिकवाद की चाह में लगे लोगों को 'नादान' कहा है। वे यह नहीं समझ पाते कि संसार असत्य है, मायाजाल है।
(घ) कवि संसार के बारे में कहता है कि यहाँ लोग जीवन-सत्य जानने के लिए प्रयास करते हैं, परंतु वे कभी सफल नहीं हुए। जीवन का सच आज तक कोई नहीं जान पाया।
(ङ) कवि संसार से सीखे ज्ञान को भुला रहा है क्योंकि उससे जीवन-सत्य की प्राप्ति नहीं होती, जिससे वह अपने मन के कहे अनुसार चल सके।
4.
मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,
मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता;
जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता !
मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,
हों जिस पर भूपों के प्रासाद निछावर,
मैं वह खंडहर का भाग लिए फिरता हूँ।
शब्दार्थः-नाता-संबंध। वैभवः-समृद्धि। पग-पैर। रोदन-रोना। राग-प्रेम। आग-जोश। भूप-राजा। प्रासाद-महल। निछावर-कुर्बान। खंडहर-टूटा हुआ भवन। भाग-हिस्सा।
प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह, भाग-2' में संकलित कविता 'आत्मपरिचय' से उधृत है। इसके रचयिता प्रसिद्ध गीतकार हरिवंश राय बच्चन हैं। इस कविता में कवि जीवन को जीने की शैली बताता है। साथ ही दुनिया से अपने द्वंद्वात्मक संबंधों को उजागर करता है।
व्याख्या:-कवि कहता है कि मुझमें और संसार-दोनों में कोई संबंध नहीं है। संसार के साथ मेरा टकराव चल रहा है। कवि अपनी कल्पना के अनुसार संसार का निर्माण करता है, फिर उसे मिटा देता है। यह संसार इस धरती पर सुख के साधन एकत्रित करता है, परंतु कवि हर कदम पर धरती को ठुकराया करता है। अर्थात वह जिस संसार में रह रहा है, उसी के प्रतिकूल आचार-विचार रखता है।
कवि कहता है कि वह अपने रोदन में भी प्रेम लिए फिरता है। उसकी शीतल वाणी में भी आग समाई हुई है अर्थात उसमें असंतो झलकता है। उसका जीवन प्रेम में निराशा के कारण खंडहर-सा है, फिर भी उस पर राजाओं के महल न्योछावर होते हैं। ऐसे खंडा का वह एक हिस्सा लिए घूमता है जिसे महल पर न्योछावर कर सके।
विशेषः-
(i) कवि ने अपनी अनुभूतियों का परिचय दिया है।
(ii) 'कहाँ का नाता' में प्रश्न अलंकार है।
(iii) 'रोदन में राग' और 'शीतल वाणी में आग' में विरोधाभास अलंकार तथा 'बना-बना' में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
(iv) 'और' की आवृत्ति में यमक अलंकार है।
(v) 'कहाँ का' और 'जग जिस पृथ्वी पर' में अनुप्रास अलंकार की छटा है।
(vi) श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति है तथा खड़ी बोली का प्रयोग है।
प्रश्न:-
(क) कवि और संसार के बीच क्या संबंध है?
(ख) कवि और संसार के बीच क्या विरोधी स्थिति है?
(ग) 'शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ' से कवि का क्या तात्पर्य है?
(घ) कवि के पास ऐसा क्या है जिस पर बड़े-बड़े राजा न्योछावर हो जाते हैं?
उत्तरः-
(क) कवि और संसार के बीच किसी प्रकार का संबंध नहीं है। संसार में संग्रह वृत्ति है, कवि में नहीं है। वह अपनी मर्ग के संसार बनाता व मिटाता है।
(ख) कवि को सांसारिक आकर्षणों का मोह नहीं है। वह इन्हें ठुकराता है। इसके अलावा वह अपने अनुसार व्यवहार करत है, जबकि संसार में लोग अपार धन-संपत्ति एकत्रित करते हैं तथा सांसारिक नियमों के अनुरूप व्यवहार करते हैं।
(ग) उक्त पंक्ति से तात्पर्य यह है कि कवि अपनी शीतल व मधुर आवाज में भी जोश, आत्मविश्वास, साहस, दृढ़ता जैसी भावनाएँ बनाए रखता है ताकि वह दूसरों को भी जाग्रत कर सके।
(घ) कवि के पास प्रेम महल के खंडहर का अवशेष (भाग) है। संसार के बड़े-बड़े राजा प्रेम के आवेग में राजगद्दी में छोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं।
5.
मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनान;
क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना।
मैं दीवानों का वेश लिए फिरता हूँ,
मैं मादकता निःशेष लिए फिरता हूँ:
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ।
शब्दार्थ-फूट पड़ा-जोर से रोया। दीवाना-पागल। मादकता-मस्ती। निःशेष-संपूर्ण ।
प्रसंगः-प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह, भाग-2' में संकलित कविता 'आत्मपरिचय' से उधृत है। इसके रचयिता प्रसिद्ध गीतकार हरिवंश राय बच्चन हैं। इस कविता में कवि जीवन को जीने की अपनी शैली बताता है। साथ ही दुनिया से अपने द्वंद्वात्मक संबंधों को उजागर करता है।
व्याख्या:--कवि कहता है कि प्रेम की पीड़ा के कारण उसका मन रोता है। अर्थात हृदय की व्यथा शब्द रूप में प्रकट हुई। उसके रोने को संसार गाना मान बैठता है। जब वेदना अधिक हो जाती है तो वह दुख को शब्दों के माध्यम से व्यक्त करता है। संसार इस प्रक्रिया को छंद बनाना कहती है। कवि प्रश्न करता है कि यह संसार मुझे कवि के रूप में अपनाने के लिए तैयार क्यों है? वह स्वयं को नया दीवाना कहता है जो हर स्थिति में मस्त रहता है। समाज उसे दीवाना क्यों नहीं स्वीकार करता। वह दीवानों का रूप धारण करके संसार में घूमता रहता है। उसके जीवन में जो मस्ती शेष रह गई है, उसे लिए वह घूमता रहता है। इस मस्ती को सुनकर सारा संसार झूम उठता है। कवि के गीतों की मस्ती सुनकर लोग प्रेम में झुक जाते हैं तथा आनंद से झूमने लगते हैं। मस्ती के संदेश को लेकर कवि संसार में घूमता है जिसे लोग गीत समझने की भूल कर बैठते हैं।
विशेष -
(i) कवि मस्त प्रकृति का व्यक्ति है। यह मस्ती उसके गीतों से फूट पड़ती है।
(ii) 'कवि कहकर' तथा 'झूम झुके' में अनुप्रास अलंकार और 'क्यों कवि ..... अपनाए' में प्रश्न अलंकार है।
(iii) खड़ी बोली का स्वाभाविक प्रयोग है।
(iv) 'मैं' शैली के प्रयोग से कवि ने अपनी बात कही है।
(v) श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति हुई है।
(vi) 'लिए फिरता हूँ' की आवृत्ति गेयता में वृद्धि करती है।
(vii) तत्सम शब्दावली की प्रमुखता है।
प्रश्नः-
(क) कवि को किस बात को संसार क्या समझता है?
(छ) कवि स्वयं को क्या कहना पसंद करता है और क्यों?
(ए) कवि को मनोदशा कैसी है?
(घ) कवि संसार को क्या संदेश देता है? संसार पर उसकी क्या प्रतिक्रिया होती है?
उत्तरः-
(क) कवि कहता है कि जब वह विरह की पीड़ा के कारण रोने लगता है तो संसार उसे गाना समझता है। अत्यधिक वेदना जब शब्दों के माध्यम से फूट पड़ती है तो उसे छंद बनाना समझा जाता है।
(ख) कवि स्वयं को कवि की बजाय दीवाना कहलवाना पसंद करता है क्योंकि वह अपनी असलियत जानता है। उसकी कविताओं में दीवानगी है।
(ग) कवि की मनोदशा दीवानों जैसी है। वह मस्ती में चूर है। उसके गीतों पर दुनिया झूमती है।
(घ) कवि संसार को प्रेम की मस्ती का संदेश देता है। उसके इस संदेश पर संसार झूमता है, झुकता है तथा आनंद से लहराता है।
(ख) एक गीत
1.
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है।
हो जाए न पथ में रात कहीं,
मंजिल भी तो है दूर नहीं-
यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है।
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है।
शब्दार्थ-ढलता-समाप्त होता। पथ-रास्ता। मंजिल- लक्ष्य। पंथी यात्री।
प्रसंगः-प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह, भाग-2' में संकलित गीत 'दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!' से उद्धृत है। इस गीत के रचयिता हरिवंश राय बच्चन हैं। इस गीत में कवि ने एकाकी जीवन की कुंठा तथा प्रेम की व्याकुलता का वर्णन किया है।
व्याख्या -कवि जीवन की व्याख्या करता है। वह कहता है कि शाम होते देखकर यात्री तेजी से चलता है कि कहीं रास्ते में रात न हो जाए। उसकी मंजिल समीप ही होती है इस कारण वह थकान होने के बावजूद भी जल्दी-जल्दी चलता है। लक्ष्य प्राप्ति के लिए उसे दिन जल्दी ढलता प्रतीत होता है। रात होने पर पथिक को अपनी यात्रा बीच में ही समाप्त करनी पड़ेगी, इसलिए थकित शरीर में भी उसका उल्लसित, तरंगित और आशान्वित मन उसके पैरों की गति कम नहीं होने देता।
विशेषः-
(1) कवि ने जीवन की क्षणभंगुरता व प्रेम की व्यग्रता को व्यक्त किया है।
(ii) 'जल्दी-जल्दी' में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
(iii) भाषा सरल, सहज और भावानुकूल है, जिसमें खड़ी बोली का प्रयोग है।
(iv) जीवन को बिंब के रूप में व्यक्त किया है।
(v) वियोग श्रृंगार रस की अनुभूति है।
प्रश्नः-
(क) ' हो जाए न पथ में'- यहाँ किस पथ की ओर कवि ने संकेत किया है?
(ख) पथिक के मन में क्या आशंका है?
(ग) पथिक के तेज चलने का क्या कारण है?
(घ) कवि दिन के बारे में क्या बताता है?
उत्तर-
(क) 'हो जाए न पथ में' के माध्यम से कवि अपने जीवन-पथ की ओर संकेत कर रहा है, जिस पर वह अकेले चल रहा है।
(ख) पथिक के मन में यह आशंका है कि घर पहुँचने से पहले कहीं रात न हो जाए। रात होने के कारण उसे रुकना पड़ सकता है।
(ग) पथिक तेज इसलिए चलता है क्योंकि शाम होने वाली है। उसे अपना लक्ष्य समीप नजर आता है। रात न हो जाए, इसलिए वह जल्दी चलकर अपनी मंजिल तक पहुँचना चाहता है।
(घ) कवि कहता है कि दिन जल्दी-जल्दी ढलता है। है। दूसरे शब्दों में, समय परिवर्तनशील है। वह किसी की प्रतीक्षा नहीं करता।
2.
बच्चे प्रत्याशा में होंगे,
नीड़ों से झाँक रहे होंगे-
शब्दार्थ-प्रत्याशा-आशा। नीड़-घोंसला । पर-पंख । चंचलता-अस्थिरता।
प्रसंग:- प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह, भाग-2' में संकलित गीत 'दिन जल्दी-जल्दी ढलता है।" में उद्धृत है। इस गीत के रचयिता हरिवंश राय बच्चन जी हैं। इस गीत में कवि ने एकाकी जीवन की कुंठा तथा प्रेम की व्याकुलता का वर्णन किया है।
व्याख्या- कवि प्रकृति के माध्यम से उदाहरण देता है कि चिड़ियाँ भी दिन ढलने पर चंचल हो उठती है। ये शीघ्रातिशीघ्र ही उनके पंखों में तेजी आ जाती है और वे जल्दी-जल्दी अपने घोंसलों में पहुँच जाना चाहती हैं।
विशेष:--
(1) उक्त काव्यांश में कवि कह रहा है कि वात्सल्य भाव की व्यग्रता सभी प्राणियों में पाई जाती है।
(ii) पक्षियों के बच्चों द्वारा घोंसलों से झाँका जाना गति एवं दृश्य बिंब उपस्थित करता है।
(iii) तत्सम शब्दावली की प्रमुखता है।
(iv) 'जल्दी-जल्दी' में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
(v) सरल, सहज और भावानुकूल खड़ी बोली में सार्थक अभिव्यक्ति है।
प्रश्नः-
(क) बच्चे किसका इंतजार कर रहे होंगे तथा क्यों?
(ख) चिड़ियों के घोंसलों में किस दृश्य की कल्पना की गई है?
(ग) चिड़ियों के परों में चंचलता आने का क्या कारण है?
(घ) इस अंश से किस मानव-सत्य को दर्शाया गया है?
उत्तर:-
(क) बच्चे अपने माता-पिता के आने का इंतजार कर रहे होंगे क्योंकि चिड़िया (माँ) के पहुँचने पर ही उनके भोजन इत्यादि की पूर्ति करती होगी।
(ख) कवि चिड़ियों के घोंसलों में उस दृश्य की कल्पना करता है जब बच्चे माँ-बाप की प्रतीक्षा में अपने घरों से झाँकने लगते हैं।
(ग) चिड़ियों के परों में चंचलता इसलिए आ जाती है क्योंकि उन्हें अपने बच्चों की चिंता में बेचैनी हो जाती है। वे बच्चों को भोजन, स्नेह व सुरक्षा देना चाहती हैं।
(घ) इस अंश से कवि माँ के वात्सल्य भाव का सजीव वर्णन कर रहा है। वात्सल्य प्रेम के कारण मातृमन आशंका से भर उठता है।
3.
मुझसे मिलने को कौन विकल ?
मैं होऊँ किसके हित चंचल ?
यह प्रश्न शिथिल करता पद को,
भरता उर में विह्वलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
शब्दार्थ:- विकल-व्याकुल। हित-लिए, वास्ते। चंचल-क्रियाशील। शिथिल-ढीला। पद-पैर। उर-हृदय। विह्वलता-बेचैनी, भाव- आतुरता
प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह, भाग-2' में संकलित गीत 'दिन जल्दी-जल्दी बलता है' से उद्धृत है। इस गीत के रचयिता हरिवंश राय बच्चन जी हैं। इस गीत में कवि ने एकाकी जीवन की कुंठा तथा प्रेम की व्याकुलता का वर्णन किया है।
व्याख्या-कवि कहता है कि इस संसार में वह अकेला है। इस कारण उससे मिलने के लिए कोई व्याकुल नहीं होता, उसकी उत्कंठा से प्रतीक्षा नहीं करता, वह भला किसके लिए भागकर घर जाए। कवि के मन में प्रेम-तरंग जगने का कोई कारण नहीं है। कवि के मन में यह प्रश्न आने पर उसके पैर शिथिल हो जाते हैं। उसके हृदय में यह व्याकुलता भर जाती है कि दिन ढलते ही रात हो जाएगी। राह में एकाकीपन और उसकी प्रिया की वियोग-वेदना उसे अशांत कर देगी। इससे उसका हृदय पीड़ा से बेचैन हो उठता है।
विशेषः -
(i) एकाकी जीवन बिताने वाले व्यक्ति की मनोदशा का वास्तविक चित्रण किया गया है।
(ii) सरल, सहज और भावानुकूल खड़ी बोली का प्रयोग है।
(iii) 'मुझसे मिलने' में अनुप्रास अलंकार तथा 'मैं होऊँ किसके हित चंचल ?' में प्रश्नालंकार है।
(iv) तत्सम-प्रधान शब्दावली है जिसमें अभिव्यक्ति की सरलता है।
प्रश्न:-
(क) कवि के मन में कौन-से प्रश्न उठते हैं?
(ख) कवि की व्याकुलता का क्या कारण है?
(ग) कवि के कदम शिथिल क्यों हो जाते हैं?
(घ) 'मैं होऊँ किसके हित चंचल?' का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:-
(क) कवि के मन में निम्नलिखित प्रश्न उठते हैं-
(i) उससे मिलने के लिए कौन उत्कंठित होकर प्रतीक्षा कर रहा है?
(ii) वह किसके लिए चंचल होकर कदम बढ़ाए ?
ख) कवि के हृदय में व्याकुलता है क्योंकि वह अकेला है। प्रिया के वियोग की वेदना इस व्याकुलता को प्रगाढ़ कर देती
है। इस कारण उसके मन में अनेक प्रश्न उठते हैं।
(ग) कवि अकेला है। उसका इंतज़ार करने वाला कोई नहीं है। इस कारण कवि के मन में भी उत्साह नहीं है, इसलिए उसके
कदम शिथिल हो जाते हैं।
(घ) 'मैं होऊँ किसके हित चंचल' का आशय यह है कि कवि अपनी पत्नी से दूर होकर एकाकी जीवन बिता रहा है। उसकी प्रतीक्षा करने वाला कोई नहीं है, इसलिए वह किसके लिए बेचैन होकर घर जाने की चंचलता दिखाए।
कविता के साथ:--
पाठ्यपुस्तक से हल प्रश्न:---
प्रश्न 1. कविता एक ओर जग-जीवन का भार लिए घूमने की बात करती है और दूसरी ओर 'मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ'- विपरीत से लगते इन कथनों का क्या आशय है?
उत्तर:-- जग-जीवन का भार लेने से कवि का अभिप्राय यह है कि वह सांसारिक दायित्वों का निर्वाह कर रहा है। आम व्यक्ति से वह अलग नहीं है तथा सुख-दुख, हानि-लाभ आदि को झेलते हुए अपनी यात्रा पूरी कर रहा है। दूसरी तरफ कवि कहता है कि वह कभी संसार की तरफ ध्यान नहीं देता। यहाँ कवि सांसारिक दायित्वों की अनदेखी की बात नहीं करता। वह संसार की निरर्थक बातों पर ध्यान न देकर केवल प्रेम पर केंद्रित रहता है। आम व्यक्ति सामाजिक बाधाओं से डरकर कुछ नहीं कर पाता। कवि सांसारिक बाधाओं की परवाह नहीं करता। अतः इन दोनों पंक्तियों के अपने निहितार्थ हैं। ये एक-दूसरे के विरोधी न होकर पूरक हैं।
प्रश्न 2. जहाँ पर दाना रहते हैं, वहीं नादान भी होते हैं-कवि ने ऐसा क्यों कहा होगा?
उत्तरः- नादान यानी मूर्ख व्यक्ति सांसारिक मायाजाल में उलझ जाता है। मनुष्य इस मायाजाल को निरर्थक मानते हुए भी इसी के चक्कर में फँसा रहता है। संसार असत्य है। मनुष्य इसे सत्य मानने की नादानी कर बैठता है और मोक्ष के लक्ष्य को भूलकर संग्रहवृत्ति में पड़ जाता है। इसके विपरीत, कुछ ज्ञानी लोग भी समाज में रहते हैं जो मोक्ष के लक्ष्य को नहीं भूलते। अर्थात संसार में हर तरह के लोग रहते हैं।
प्रश्न 3. मैं और, और जग और कहाँ का नाता-पंक्ति में 'और' शब्द की विशेषता बताइए।
उत्तरः- यहाँ 'और' शब्द का तीन बार प्रयोग हुआ है। अतः यहाँ यमक अलंकार है। पहले 'और' में कवि स्वयं को आम व्यक्ति से अलग बताता है। वह आम आदमी की तरह भौतिक चीज़ों के संग्रह के चक्कर में नहीं पड़ता। दूसरे 'और' के प्रयोग में संसार की विशिष्टता को बताया गया है। संसार में आम व्यक्ति सांसारिक सुख-सुविधाओं को अंतिम लक्ष्य मानता है। यह प्रवृत्ति विचारधारा से अलग है। तीसरे 'और' का प्रयोग 'संसार और कवि में किसी तरह का संबंध नहीं' दर्शाने के लिए किया गया है ।
प्रश्न-4 'शीतल वाणी में आग' के होने का क्या अभिप्राय है?
अथवा
'शीतल वाणी ' में आग लिए फिरता हूँ'-- इस कथन से कवि का क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:-- कवि ने यहाँ विरोधाभास अलंकार का प्रयोग किया है। कवि की वाणी यदयपि शीतल है। परंत उसके मन में विद्रोह, असंतोष का भाव प्रबल है। वह वह समाज की व्यवस्था से संतुष्ट नहीं है। वह प्रेम-रहित संसार को अस्वीकार करता है। अतः अपनी वाणी के माध्यम से अपनी असंतुष्टि को व्यक्त करता है। वह अपने कवित्व धर्म को ईमानदारी से निभाते हुए लोगों को जाग्रत कर रहा है।
प्रश्न -5 बच्चे किस बात को आशा में नीड़ों से झाँक रहे होंगे?
उत्तर:- पक्षी दिन भर भोजन की तलाश में भटकते फिरते हैं। उनके बच्चे घोंसलों में माता-पिता की राह देखते रहते हैं कि माता - पिता उनके लिए दाना लाएँगे और उनका पेट भरेंगे। साथ-साथ वे माँ-बाप के स्नेहिल स्पर्श पाने के लिए प्रतीक्षा करते हैं। छोटे बच्चों को माता-पिता का स्पर्श व उनको गोद में बैठना, उनका प्रेम-प्रदर्शन भी असीम आनंद देता है। इन सबकी पूर्ति के लिए वे नीड़ों से झाँकते हैं।
प्रश्न 6:- 'दिन जल्दी-जल्दी ढलता है' - की आवृत्ति से कविता की किस विशेषता का पता चलता है?
उत्तर:-- 'दिन जल्दी-जल्दी बलता है' की आवृत्ति से यह प्रकट होता है कि लक्ष्य की तरफ बढ़ते मनुष्य को समय बीतने का पता
नहीं चलता। पधिक लक्ष्य तक पहुँचने के लिए आतुर होता है। इस पंक्ति की आवृत्ति समय के निरंतर चलायमान प्रवृत्ति को भी बताती है। समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। अतः समय के साथ स्वयं को समायोजित करना प्राणियों के लिए आवश्यक है।
कविता के आस-पास:--
प्रश्न 1:-संसार में कष्टों को सहते हुए भी खुशी और मस्ती का माहौल कैसे पैदा किया जा सकता है?
उत्तर:-- सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य हर संबंध का निर्वाह करता है। उसे जीवन में अनेक तरह के कष्टों का सामना करना पड़ता है। कष्ट सहना मानव की नियति है। सुख-दुख समय के अनुसार आते-जाते रहते हैं। मनुष्य को दुख से परेशान नहीं होना चाहिए क्योंकि दुखों के बिना सुख की सच्ची अनुभूति नहीं पाई जा सकती। अतः मनुष्य को संतुलित तथा सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाकर जीवन को उल्लासपूर्ण बनाना चाहिए। निरंतर काम में लगे रहकर कष्टों को भुलाया जा सकता है।
🇮🇳 राजेश राष्ट्रवादी
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