कक्षा-12 पाठ- भक्तिन, आरोह भाग-2, सम्पूर्ण व्याख्या , प्रश्नोत्तर / CLASS 12 , LESSON- BHAKTIN, AAROH PART -2 , TOTAL SUMARY, QUESTION-...
कक्षा-12
पाठ- भक्तिन,
आरोह भाग-2,
सम्पूर्ण व्याख्या ,
प्रश्नोत्तर /
CLASS 12 , LESSON- BHAKTIN, AAROH PART -2 , TOTAL SUMARY, QUESTION-ANSWER
पाठ- भक्तिन
लेखिका - महादेवी वर्मा जी
पाठ का प्रतिपाद्य एवं सारांश:--
प्रतिपाद्यः-
'भक्तिन' महादेवी जी का प्रसिद्ध संस्मरणात्मक रेखाचित्र है जो 'स्मृति की रेखाएँ' में संकलित है। इसमें लेखिका ने अपनी सेविका भक्तिन के अतीत और वर्तमान का परिचय देते हुए उसके व्यक्तित्व का दिलचस्प खाका खींचा है। महादेवी के घर में काम शुरू करने से पहले उसने कैसे एक संघर्षशील, स्वाभिमानी और कर्मठ जीवन जिया, कैसे पितृसत्तात्मक मान्यताओं और छल-छद्म भरे समाज में अपने और अपनी बेटियों के हक की लड़ाई लड़ती रही और हारकर कैसे जिंदगी की राह पूरी तरह बदल लेने के निर्णय तक पहुँची, इसका संवेदनशील चित्रण लेखिका ने किया है। साथ ही, भक्तिन लेखिका के जीवन में आकर छा जाने वाली एक ऐसी परिस्थिति के रूप में दिखाई पड़ती है, जिसके कारण लेखिका के व्यक्तित्व के कई अनछुए आयाम उद्घाटित होते हैं। इसी कारण अपने व्यक्तित्व का ज़रूरी अंश मानकर वे भक्तिन को खोना नहीं चाहतीं।
सारांश: -
लेखिका कहती है कि भक्तिन का कद छोटा व शरीर दुबला था। उसके होंठ पतले थे। वह गले में कंठी-माला पहनती थी। उसका नाम लक्ष्मी था, परंतु उसने लेखिका से यह नाम प्रयोग न करने की प्रार्थना की। उसकी कंठी-माला को देखकर लेखिका ने उसका नाम 'भक्तिन' रख दिया। सेवा-धर्म में वह हनुमान से स्पर्धा करती थी।
उसके अतीत के बारे में यही पता चलता है कि वह ऐतिहासिक झूँसी के गाँव के प्रसिद्ध अहीर की इकलौती बेटी थी। उसका लालन-पालन सौतेली माँ ने किया। पाँच वर्ष की उम्र में इसका विवाह हडिया गाँव के एक गोपालक के पुत्र के साथ कर दिया गया था। नौ वर्ष की उम्र में गौना हो गया। भक्तिन की विमाता ने उसके पिता की मृत्यु का समाचार देर से भेजा। सास ने रोने पीटने के अपशकुन से बचने के लिए उसे पीहर यह कहकर भेज दिया कि वह बहुत दिनों से गई नहीं है। मायके जाने पर विमाता के दुर्व्यवहार तथा पिता की मृत्यु से व्यथित होकर वह बिना पानी पिए ही घर वापस चली आई। घर आकर सास को खरी-खोटी सुनायी तथा पति के ऊपर गहने फेंककर अपनी व्यथा व्यक्त की।
भक्तिन को जीवन के दूसरे भाग में भी सुख नहीं मिला। उसके लगातार तीन लड़कियाँ पैदा हुई तो सास व जेठानियों ने उसकी उपेक्षा करनी शुरू कर दी। इसका कारण यह था कि सास के तीन कमाऊ बेटे थे तथा जेठानियों के तीन काले पुत्र थे। जेठानियों बैठकर खाती तथा घर का सारा काम-चक्की चलाना, कूटना, पीसना, खाना बनाना आदि कार्य-भक्तिन करती। छोटी लड़कियाँ गोबर उठाती तथा कंडे थापती थीं। खाने के मामले में भी भेदभाव था। जेठानियों और उनके लड़कों को भात पर सफेद राब, दूध व मलाई मिलती तया भक्ति को काले गुड़ की डली, मट्ठा तथा लड़कियों को चने-बाजरे की घुघरी मिलती थी।
इस पूरे प्रकरण में भक्तिन के पति का व्यवहार अच्छा था। उसे अपनी पत्नी पर विश्वास था। पति-प्रेम के बल पर ही वह अलग हो गई। अलग होते समय अपने ज्ञान के कारण उसे गाय-भैंस, खेत, खलिहान, अमराई के पेड़ आदि ठीक-ठाक मिल गए। परिश्रम के कारण घर में समृद्धि आ गई। पति ने बड़ी लड़की का विवाह धूमधाम से किया। इसके बाद वह दो कन्याओं को छोड़कर चल बसा। इस समय भक्तिन की आयु 29 वर्ष की थी। उसकी संपत्ति देखकर परिवार वालों के मुँह में पानी आ गया। उन्होंने दूसरे विवाह का प्रस्ताव किया तो भक्तिन ने स्पष्ट मना कर दिया। उसने केश कटवा दिए तथा गुरु से मंत्र लेकर कंठी बाँध ली। उसने दोनों लड़कियों की शादी कर दी और पति के चुने दामाद को घर जमाई बनाकर रखा।
जीवन के तीसरे परिच्छेद में दुर्भाग्य ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। उसकी लड़की भी विधवा हो गई। परिवार वालों की दृष्टि उसकी संपत्ति पर थी। उसका जेठ भक्तिन की विधवा लडकी के विवाह के लिए अपने तीतर लड़ाने वाले साले को बुला लाया क्योंकि उसका विवाह हो जाने पर सब कुछ उन्हीं के अधिकार में रहता। भक्तिन की लड़की ने उस वर को नापसंद कर दिया। माँ-बेटी मन लगाकर अपनी संपत्ति की देखभाल करने लगीं।
एक दिन भक्तिन की अनुपस्थिति में उस तीतरबाज वर ने बेटी की कोठरी में घुसकर भीतर से दरवाजा बंद कर लिया और उसके समर्थक गाँव वालों को बुलाने लगे। लड़की ने उसकी खूब मरम्मत की तो पंच समस्या में पड़ गए। अंत में पंचायत ने कलियुग को इस समस्या का कारण बताया और अपीलहीन फैसला हुआ कि दोनों को पति-पत्नी के रूप में रहना पड़ेगा। अपमानित बालिका और माँ विवश थीं। यह संबंध सुखकर नहीं था। दामाद निश्चित होकर तीतर लड़ाता था, जिसकी वजह से पारिवारिक द्वेष इस कदर बढ गया कि लगान (टैक्स) अदा करना भी मुश्किल हो गया। एक दिन लगान न पहुँचने के कारण जमींदार ने भक्तिन को कड़ी धूप में खड़ा कर दिया। यह अपमान वह सहन न कर सकी और कमाई के विचार से शहर चली आई।
जीवन के अंतिम परिच्छेद में, घुटी हुई चाँद, मैली धोती तथा गले में कंठी पहने वह लेखिका के पास नौकरी के लिए पहुंची उसने रोटी बनाना, दाल बनाना आदि काम जानने का दावा किया। नौकरी मिलने पर उसने अगले दिन स्नान करके लेखिका की धने धोती भी जल के छींटों से पवित्र करने के बाद पहनी। निकलते सूर्य व पीपल को अर्घ दिया। दो मिनट जप किया और कोयले को मोटी रेखा से चौके की सीमा निर्धारित करके खाना बनाना शुरू किया। भक्तिन छूत-पाक को मानने वाली थी। लेखिका ने समझौता करना उचित समझा।
भोजन के समय भक्तिन ने लेखिका को दाल के साथ मोटी काली चित्तीदार चार रोटियाँ परोसीं तो लेखिका ने टोका। उसने अपना तर्क दिया कि अच्छी सेंकने के प्रयास में रोटियाँ अधिक कड़ी हो गईं। उसने सब्जी न बनाकर दाल बना दी। इस खाने पर प्रश्नवाचक दृष्टि होने पर वह अमचूरण, लाल मिर्च की चटनी या गाँव से लाए गुड़ का प्रस्ताव रखा। भक्तिन के लेक्चर के कारण लेखिका रूखी दत से एक मोटी रोटी खाकर विश्वविद्यालय पहुँची और न्यायसूत्र पढ़ते हुए शहर और देहात के जीवन के अंतर पर विचार करने लगी। गिरते स्वास्थ्य व परिवार वालों की चिंता निवारण के लिए लेखिका ने खाने के लिए अलग व्यवस्था की, किंतु इस देहाती वृद्धा की सरलता से वह इतना प्रभावित हुई कि वह अपनी असुविधाएँ छिपाने लगी। भक्तिन स्वयं को बदल नहीं सकती थी। वह दूसरों से अपने मन के अनुकूल बनाने की इच्छा रखती थी। लेखिका देहाती बन गई, परंतु भक्तिन को शहर की हवा नहीं लगी। उसने लेखिका को ग्रामीण खाना-खाना सिखा दिया, परंतु स्वयं 'रसगुल्ला' भी नहीं खाया। उसने लेखिका को अपनी भाषा की अनेक दंतकथाएँ कंठस्थ करा दीं, परंतु खुद 'आँय' के स्थान पर 'जी' कहना नहीं सीखा।
भक्तिन में दुर्गुणों का अभाव नहीं था। वह इधर-उधर पड़े पैसों को किसी मटकी में छिपाकर रख देती थी जिसे वह बुरा नहीं मानती थी। थी। पूछने पर वह कहती कि यह उसका अपना घर ठहरा, पैसा-रुपया जो इधर-उधर पड़ा देखा, सँभालकर रख लिया। यह क्या चोरी है! अपनी मालकिन को खुश करने के लिए वह बात को बदल भी देती थी। वह अपनी बातों को शास्त्र-सम्मत मानती थे। वह अपने तर्क देती थी। लेखिका ने उसे सिर घुटाने से रोका तो उसने 'तीरथ गए मुँड़ाए सिद्ध।' कहकर अपना कार्य शास्त्र-सिद्ध बताया। वह स्वयं पढ़ी-लिखी नहीं थी। अब वह हस्ताक्षर करना भी सीखना नहीं चाहती थी। उसका तर्क था कि उसकी मालकिन दिन-रात किताब पढ़ती है। यदि वह भी पढ़ने लगे तो घर के काम कौन करेगा। भक्तिन अपनी मालकिन को असाधारणता का दर्जा देती थी। इसी से वह अपना महत्त्व साबित कर सकती थी। उत्तर-पुस्तिका के
निरीक्षण-कार्य में लेखिका का किसी ने सहयोग नहीं दिया। इसलिए वह कहती फिरती थी कि उसकी मालकिन जैसा कार्य कोई नहीं जानता। वह स्वयं सहायता करती थी। कभी उत्तर-पुस्तिकाओं को बाँधकर, कभी अधूरे चित्र को कोने में रखकर, कभी रंग की प्याली धोकर और कभी चटाई को आँचल से झाड़कर वह जो सहायता करती थी उससे भक्तिन का अन्य व्यक्तियों से अधिक बुद्धिमान होना प्रमाणित हो जाता है। लेखिका की किसी पुस्तक के प्रकाशन होने पर उसे प्रसन्नता होती थी। उस कृति में वह अपना सहयोग खोजती थी। लेखिका भी उसकी आभारी थी क्योंकि जब वह बार-बार के आग्रह के बाद भी भोजन के लिए न उठकर चित्र बनाती रहती थी, तब भक्तिन कभी दही का शरबत अथवा कभी तुलसी की चाय पिलाकर उसे भूख के कष्ट से बचाती थी।
भक्तिन में गजब का सेवा-भाव था। छात्रावास की रोशनी बुझने पर जब लेखिका के परिवार के सदस्य-हिरनी सोना, कुत्ता बसंत, बिल्ली गोधूलि भी-आराम करने लगते थे, तब भी भक्तिन लेखिका के साथ जागती रहती थी। वह उसे कभी पुस्तक देती, कभी स्याही तो कभी फ़ाइल देती थी।
भक्तिन लेखिका के जागने से पहले जागती थी तथा लेखिका के बाद सोती थी। बदरी-केदार के पहाड़ी तंग रास्तों पर वह लेखिका से आगे चलती थी, परंतु गाँव की धूलभरी पगडंडी पर उसके पीछे रहती थी। लेखिका भक्तिन को छाया के समान समझती थी। युद्ध के समय लोग डरे हुए थे, उस समय वह बेटी-दामाद के आग्रह पर लेखिका के साथ रहती थी। युद्ध में भारतीय सेना के पलायन की बात सुनकर वह लेखिका को अपने गाँव ले जाना चाहती थी। वहाँ वह लेखिका के लिए हर तरह के प्रबंध करने का आश्वासन देती थी । वह अपनी पूँजी को भी दाँव पर लगाने के लिए तैयार थी।
लेखिका का मानना है कि उनके बीच स्वामी-सेवक का संबंध नहीं था। इसका कारण यह था कि यह उसे इच्छा होने पर भी हटा नहीं सकती थी और भक्तिन चले जाने का आदेश पाकर भी हँसकर टाल रही थी। वह उसे नौकर भी नहीं मानती थी। भक्तिन लेखिका के जीवन को घेरे हुए थी।
भक्तिन छात्रावास की बालिकाओं के लिए चाय बना देती थी। वह उन्हें लेखिका के नाश्ते का स्वाद भी लेने देती थी। वह लेखिका के परिचितों व साहित्यिक बंधुओं से भी परिचित थी। वह उनके साथ वैसा ही व्यवहार करती थी जैसा लेखिका करती थी। यह उन्हें आकार- प्रकार, वेश-भूषा या नाम के अपभ्रंश द्वारा जानती थी। कवियों के प्रति उसके मन में विशेष आदर नहीं था, परंतु दूसरे के दुख से वह कातर हो उठती थी। किसी विद्यार्थी के जेल जाने पर वह व्यथित हो उठती थी। यह कारागार से डरती थी, परंतु लेखिका के जेल जाने पर खुद भी उनके साथ चलने का हठ किया। अपनी मालकिन के साथ जेल जाने के हक के लिए वह बड़े लाट तक से लड़ने को तैयार थी। भक्तिन का अंतिम परिच्छेद चालू है। वह इसे पूरा नहीं करना चाहती।
शब्दार्थ:--
संकल्प-निश्चय। विचित्र-आश्चर्यजनक । जिज्ञासु-उत्सुक। चिंतन-विचार। स्पर्धा-मुकाबला। अंजना-हनुमान को माता। दुर्दह-जिसे ढोना मुश्किल हो। कपाल-भाग्य, माथा। कुंचित सिकुड़ी हुई। शेष इतिवृत्त-पूरो कथा। अंशतः थोड़ा-सा।
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विमाता-सौतेली माता। किंवदंती-जनता में प्रचलित बातें। वय-आयु, जवानी। गौना-विवाह के बाद पति का अपने ससुराल से अपनी पत्नी को पहली बार अपने घर ले आना।अगाध- अधिक, गहरा। मरणांतक-जानलेवा। नैहर-मायका। अप्रत्याशित-जिसकी अशा न हो। अनुग्रह-कृपा। पुनरावृत्तियाँ-वार-बार कहना। ठेले ले जाना-पहुँचाना। लेश-तनिक। चिर बिछोह-स्थायी वियोग। मर्मव्यथा-हृदय को कष्ट देने वाली पीड़ा। परिच्छेद-अध्याय। विधात्री-जन्म देने वाली। मचिया- खाट की तरह बुनी हुई छोटी चौकी (बैठकी)। विराजमान- बैठना। पुरखिन-बड़ी-बूढ़ी। अभिषिक्त-जिसका अभिषेक हुआ हो, अधिकार प्राप्त। काक- भुशंडी-राम का एक भक्त जो शापवश एक कौआ बना। सृष्टि-रचना, संसार। लीक छोड़ना-परंपरा को तोड़ना। राब-खाँड़, गाढ़ा सौरा। औटना-ताप से गाढ़ा करना। टकसाल-वह स्थान जहाँ सिक्के ढाले जाते हैं। चुगली-चबाई निंदा। परिणति-निष्कर्ष।
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अलगौझा-बँटवारा। खलिहान-कटी फसल को रखने का स्थान। निरंतर- लगातार। कुकुरी- कुतिया। बिलारी-बिल्ली। होरहा-होला, आग पर भुना हरे चने का रूप। अजिया ससुर-पति का बाबा। कै-कितने ही। उपार्जित-कमाई। कटिबद्ध-तैयार।
जिठाँत-पति के बड़े भाई का पुत्र। गठबंधन- विवाह, शादी।
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परिमार्जन-शुद्ध करना, सुधार करना। कर्मठता-मेहनत। दीक्षित-जिसने दीक्षा ग्रहण किया हो। अथ-प्रारंभ। अभिनंदन-स्वागत ।
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नितांत- पूर्णतः। वीतराग-आसक्तिरहित। आसीन - बैठा। निर्दिष्ट- निश्चित। पितिया ससुर-पति का चाचा। मौखिक-जबानी। निवारण-दूर करना ! उपचार- इलाज। जाग्रत-सचेत ।
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मकई-मक्का। लपसी-पतला-सा हलुवा। क्रियात्मक-व्यावहारिक। पोपला-दाँतरहित मुँह । दंत-कथाएँ-परंपरा से चले आ रहे किस्से । कंठस्थ-याद। नरो वा कुंजरो वा-मनुष्य या हाथी। सिर घुटाना-जड़ से बाल कटवाना। अंकुरित भाव-बिना संकोच के। चूड़ाकर्म-सिर के बाल को पहले-पहल कटवाना। नापित-नाई। निष्पन्न-पूर्ण।
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अपमान-निरादर। मंथरता-धीमी गति । पटु-चतुर। पिंड छुड़ाया-छुटकारा पाया।
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अतिशयोक्तियाँ-बढ़ा-चढ़ाकर कही गई बातें। अमरबेल-जड़रहित बेल जो दूसरे वृक्षों से जीवनरस लेकर फैलती है। आभा-प्रकाश। उद्भासित-आलोकित । पागुर-जुगाली। निस्तब्धता-शांति । प्रशांत-पूरी तरह शांत।
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आतंकित-भयभीत । नाती-बेटी का पुत्र । विनीत-विनम्र । मचान-बाँस आदि की सहायता से बनाया गया ऊँचा आसन। विस्मित-आश्चर्यचकित । अमरौती खाकर आना-अमरता लेकर आना। अवज्ञा-आदेश न मानना । स्नेह-प्रेम। सम्मान-आदर। अपभ्रंश-बिगड़ा हुआ। कारागार-जेल ।
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माई- माँ । बडे लाट - वायसराय। विषम - विपरीत। दुर्लभ- कठिन
पाठ्यपुस्तक से हल प्रश्न:--
पाठ के साथ:--
प्रश्न 1. भक्तिन अपना वास्तविक नाम लोगों से क्यों छुपाती थी? भक्तिन नाम किसने और क्यों दिया होगा?
उत्तर :- भक्तिन का वास्तविक नाम था-लछमिन अर्थात लक्ष्मी। लक्ष्मी नाम समृद्धि व ऐश्वर्य का प्रतीक माना जाता है, परंतु यहाँ नाम के साथ गुण नहीं मिलता। लक्ष्मी बहुत गरीब तथा समझदार है। वह जानती है कि समृद्धि का सूचक यह नाम गरीब महिला को शोभा नहीं देता। उसके नाम व भाग्य में विरोधाभास है। वह सिर्फ़ नाम की लक्ष्मी है। समाज उसके नाम को सुनकर उसका उपहास न उड़ाए इसीलिए वह अपना वास्तविक नाम लोगों से छुपाती थी।
भक्तिन को यह नाम लेखिका ने दिया। उसके गले में कंठी-माला व मुँड़े हुए सिर से वह भक्तिन ही लग रही थी। उसमें सेवा-भावना व कर्तव्यपरायणता को देखकर ही लेखिका ने उसका नाम 'भक्तिन' रखा।
प्रश्न 2. दो कन्या-रत्न पैदा करने पर भक्तिन पुत्र-महिमा में अंधी अपनी जिठानियों द्वारा घृणा व उपेक्षा का शिकार बनी। ऐसी घटनाओं से ही अकसर यह धारणा चलती है कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है। क्या इससे आप सहमत हैं?
उत्तरः- दो कन्या-रत्न पैदा करने पर भी भक्तिन पुत्र-महिमा में अंधी अपनी जिठानियों द्वारा घृणा व उपेक्षा की शिकार बनी। भक्तिन की सास ने तीन पुत्रों को जन्म दिया तथा जिठानियाँ भी पुत्रों को जन्म देकर सास की बराबरी कर रही थीं। ऐसी स्थिति में भक्तिन द्वारा सिर्फ़ कन्याओं के जन्म देने से वे उसकी उपेक्षा करने लगीं। यह सही है कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है। भक्तिन को उसके पति से अलग करने के लिए अनेक षड्यंत्र भी सास व जिठानियों ने किए। एक नारी दूसरी नारी के सुख को देखकर कभी खुश नहीं होती। पुत्र न होना, संतान न होना, दहेज आदि सभी मामलों में नारी ही समस्या को गंभीर बनाती है। वे ताने देकर समस्याग्रस्त महिला का जीना हराम कर देती हैं। दूसरी तरफ पुरुष को भी गलत लिए उकसाती है। नवविवाहिता को दहेज के लिए प्रताड़ित करने वाली भी स्त्रियाँ ही होती हैं।
प्रश्न 3. 'भक्तिन की बेटी पर पंचायत द्वारा जबरन पति थोपा जाना एक दुर्घटना भर नहीं, बल्कि विवाह के संदर्भ में स्त्री के मानवाधिकार (विवाह करें या न करें अथवा किससे करें) की स्वतंत्रता को कुचलते रहने की सदियों से चली आ रही सामाजिक परंपरा का प्रतीक है। कैसे?
अथवा
"भक्तिन की बेटी पर पंचायत द्वारा जबरन पति थोपा जाना स्त्री के मानवाधिकार को कुचलने की परंपरा का प्रतीक है।" इस कथन पर तर्कसम्मत टिप्पणी कीजिए।
उत्तरः- भक्तिन की विधवा बेटी के साथ उसके ताऊ के लड़के के साले ने जबरदस्ती करने की कोशिश की। लड़की ने उसकी खूब पिटाई की, परंतु पंचायत ने अपीलहीन फ़ैसले में उसे तीतरबाज युवक के साथ रहने का फैसला सुनाया। यह सरासर स्त्री के मानवाधिकारों का हनन है। भारत में यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। यहाँ शादी करने का निर्णय सिर्फ़ पुरुष के हाथ में होता है। महाभारत में द्रौपदी को उसकी इच्छा के विरुद्ध पाँच पतियों की पत्नी बनना पड़ा। मीरा की शादी बचपन में ही कर दी गई तथा लक्ष्मीबाई की शादी अधेड़ उम्र के राजा के साथ कर दी गई। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहाँ अयोग्य लड़के के साथ गुणवती कन्या का विवाह किया गया तथा लड़की की जिंदगी नरक बना दी गई।
प्रश्न 4. 'भक्तिन अच्छी है, यह कहना कठिन होगा, क्योंकि उसमें दुर्गुणों का अभाव नहीं।' लेखिका ने ऐसा क्यों कहा होगा?
उत्तरः- भक्तिन में सेवा-भाव है, वह कर्तव्यपरायणा है, परंतु इसके बावजूद उसमें अनेक दुर्गुण भी हैं। लेखिका उसे अच्छा कहने में कठिनाई महसूस करती है। लेखिका को भक्तिन के निम्नलिखित कार्य दुर्गुण लगते हैं-
(i) वह लेखिका के इधर-उधर पड़े पैसे रुपये भंडार-घर की मटकी में छिपा देती है। जब उससे इस कार्य के लिए पूछा जाता है तो वह स्वयं को सही ठहराने के लिए अनेक तरह के तर्क देती है।
(ii) वह लेखिका को प्रसन्न रखने के लिए बात को इधर-उधर घुमाकर बताती है। वह इसे झूठ नहीं मानती।
(iii) शास्त्र की बातों को भी वह अपनी सुविधानुसार सुलझा लेती है। वह किसी भी तर्क को नहीं मानती।
(iv) वह दूसरों को अपने अनुसार ढालना चाहती है, परंतु स्वयं में कोई परिवर्तन नहीं करती।
(v) पढ़ाई-लिखाई में उसकी कोई रुचि नहीं है।
प्रश्न 5. भक्तिन द्वारा शास्त्र के प्रश्न को सुविधा से सुलझा लेने का क्या उदाहरण लेखिका ने दिया है?
उत्तर:- भक्तिन की यह विशेषता है कि वह हर बात को, चाहे वह शास्त्र की ही क्यों न हो, अपनी सुविधा के अनुसार ढाल लेती है। वह सिर घुटाए रखती थी, लेखिका को यह अच्छा नहीं लगता था। जब उसने भक्तिन को ऐसा करने से रोका तो उसने अपनी बात को ऊपर रखा तथा कहा कि शास्त्र में यही लिखा है। जब लेखिका ने पूछा कि क्या लिखा है? उसने तुरंत उत्तर दिया-तीरथ गए मुँड़ाए सिद्ध। यह बात किस शास्त्र में लिखी गई है, इसका ज्ञान भक्तिन को नहीं था। जबकि लेखिका जानती थी कि यह कथन किसी व्यक्ति का है, न कि शास्त्र का। अतः वह भक्तिन को सिर घुटाने से नहीं रोक सकी तथा हर बृहस्पतिवार को उसका मुंडन होता रहा।
प्रश्न 6. भक्तिन के आ जाने से महादेवी अधिक देहाती कैसे हो गईं?
अथवा
भक्तिन के आ जाने से महादेवी अधिक देहाती हो गईं, कैसे? सोदाहरण लिखिए।
उत्तरः-- भक्तिन देहाती महिला थी। शहर में आकर उसने स्वयं में कोई परिवर्तन नहीं किया। ऊपर से वह दूसरों को भी अपने अनुसार बना लेना चाहती है, पर अपने मामले में उसे किसी प्रकार का हस्तक्षेप पसंद नहीं था। उसने लेखिका का मीठा खाना बिल्कुल बंद कर दिया। उसने गाढ़ी दाल व मोटी रोटी खिलाकर लेखिका की स्वास्थ्य संबंधी चिंता दूर कर दी। अब लेखिका को रात को मकई का दलिया, सवेरे मट्ठा, तिल लगाकर बाजरे के बनाए हुए ठंडे पुए, ज्वार के भुने हुए भुट्टे के हरे-हरे दानों की खिचड़ी व सफेद महुए की लपसी मिलने लगी। इन सबको वह स्वाद से खाने लगी। इसमें अतिरिक्त उसने महादेवी को देहाती भाषा भी सिखा दी। इस प्रकार महादेवी भी देहाती बन गईं।
पाठ के आस-पास:--
प्रश्न 1. 'आलो आँधारि' की नायिका और लेखिका बेबी हालदार और भक्तिन के व्यक्तित्व में आप क्या समानता देखते हैं?
उत्तर :- 'आलो आँधारि' की नायिका एक घरेलू नौकरानी है। भक्तिन भी लेखिका के घर में नौकरी करती है। दोनों में यही समानता है। दूसरे, दोनों ही घर में पीड़ित हैं। परिवार वालों ने उन्हें पूर्णतः उपेक्षित कर दिया था। दोनों ने आत्मसम्मान को बचाने हुए जीवन-निर्वाह किया।
प्रश्न 2. भक्तिन की बेटी के मामले में जिस तरह का फैसला पंचायत ने सुनाया, वह आज भी कोई हैरतअंगेज बात नहीं है। अखबारों या टी०वी० समाचारों में आने वाली किसी ऐसी ही घटना को भक्तिन के उस प्रसंग के साथ रखकर उस पर चर्चा करें।
उत्तरः- भक्तिन की बेटी के मामले में जिस तरह का फ़ैसला पंचायत ने सुनाया, वह आज भी कोई हैरतअंगेज बात नहीं है। अब भी पंचायतों का तानाशाही रवैया बरकरार है। अखबारों या टी०वी० पर अकसर समाचार सुनने को मिलते हैं कि प्रेम विवाह को पंचायतें अवैध करार देती हैं तथा पति-पत्नी को भाई-बहिन की तरह रहने के लिए विवश करती हैं। वे उरे सजा भी देती हैं। कई बार तो उनकी हत्या भी कर दी जाती है। यह मध्ययुगीन बर्बरता आज भी विद्यमान है।
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