कक्षा-12, पाठ- बाजार दर्शन , आरोह भाग-2, सारांश, शब्दार्थ, / CLASS 12 LESSON- BAJAR DARSHAN AAROH PART -2 SUMARY MEANINGS QUESTION...
कक्षा-12,
पाठ- बाजार दर्शन ,
आरोह भाग-2,
सारांश,
शब्दार्थ,
/ CLASS 12 LESSON- BAJAR DARSHAN AAROH PART -2 SUMARY MEANINGS QUESTION-ANSWER
पाठ- बाजार दर्शन
शब्दार्थ / MEANINGS
आशय- अर्थ। प्रमाणित-सिद्ध। माया-आकर्षण। ओट-सहारा। मनीबैग-पैसे रखने का बैला।
पावर- शक्ति, ताकत। माल-टाल-सामान। पर्चेजिंग पावर-खरीदने की शक्ति । फिजूल- व्यर्थ। दरकार- इच्छा, परवाह
करतब- कला।
बेहया-बेशर्म । हरज़-नुकसान। आग्रह- खुशामद । तिरस्कार-अपमान। मूक-मौन। परिमित-सीमित। अतुलित- अपार । ईर्ष्या-जलन। कामना-इच्छा। विकल- व्याकुल। तृष्णा- लालसा, इच्छा।
त्रास-दुख। सेंक-तपन। खुराक भोजन। कृतार्थ-अहसानमंद। शून्य-खाली।
सनातन-शाश्वत । निरोध-रोकना। राह-मार्ग । अकारथ-व्यर्थ । व्यापक-विस्तृत । संकीर्ण-सँकरा। विराट-विशाल। क्षुद्र- तुच्छ। बलात-ज़बरदस्ती । अप्रयोजनीय-अर्थरहित। अखिल-संपूर्ण। सरनाम-प्रसिद्ध। खुद-स्वयं। खुशहाल-संपन्न। ऑर्डर-सामान के लिए अग्रिम पैसा देना। बँधे वक्त-निश्चित
प्रतिपाद्य-'बाजार दर्शन' (bazar Darshan) निबंध में गहरी वैचारिकता व साहित्य के सुलभ लालित्य का संयोग है। कई दशक पहले लिखा गया यह लेख आज भी उपभोक्तावाद व बाज़ारवाद को समझाने में बेजोड़ है। जैनेंद्र जी अपने परिचितों, मित्रों से जुड़े अनुभव बताते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि बाज़ार की जादुई ताकत मनुष्य को अपना गुलाम बना लेती है। यदि हम अपनी आवश्यकताओं को ठीक-ठीक समझकर बाज़ार का उपयोग करें तो उसका लाभ उठा सकते हैं। इसके विपरीत, बाज़ार की चमक-दमक में फैसने के बाद हम असंतोष, तृष्णा और ईर्ष्या से घायल होकर सदा के लिए बेकार हो सकते हैं। लेखक ने कहीं दार्शनिक अंदाज में तो कहीं किस्सागो की तरह अपनी बात समझाने की कोशिश की है। इस क्रम में इन्होंने केवल बाज़ार का पोषण करने वाले अर्थशास्त्र को अनीतिशास्त्र बताया है।
सारांश-लेखक अपने मित्र की कहानी बताता है कि एक बार वे बाज़ार में मामूली चीज़ लेने गए, परंतु वापस बंडलों के साथ लौटे। लेखक के पूछने पर उन्होंने पत्नी को दोषी बताया। लेखक के अनुसार, पुराने समय से पति इस विषय पर पत्नी की ओट लेते हैं। इसमें मनीबैग अर्थात पैसे की गरमी भी विशेष भूमिका अदा करता है।
पैसा पावर है, परंतु उसे प्रदर्शित करने के लिए बैंक बैलेंस, मकान-कोठी आदि इकट्ठा किया जाता है। पैसे की पर्चेजिंग पावर के प्रयोग से पावर का रस मिलता है। लोग संयमी भी होते हैं। वे पैसे को जोड़ते रहते हैं तथा पैसे के जुड़ा होने पर स्वयं को गर्वीला महसूस करते हैं। मित्र ने बताया कि सारा पैसा खर्च हो गया। मित्र की अधिकतर खरीद पर्चेचेंजिंग पावर के अनुपात से आई थी, न कि जरूरत की। लेखक कहता है कि फालतू चीज़ की खरीद का प्रमुख कारण बाज़ार का आकर्षण है। मित्र ने इसे शैतान का जाल बताया है। यह ऐसा सजा होता है कि बेहया ही इसमें नहीं फँसता। बाज़ार अपने रूपजाल में सबको उलझाता है। इसके आमंत्रण में आग्रह नहीं है। ऊँचे बाजार का आमंत्रण मूक होता है। यह इच्छा जगाता है। हर आदमी को चीज़ की कमी महसूस होती है। चाह और अभाव मनुष्य को पागल कर देता है। असंतोष, तृष्णा व ईर्ष्या से मनुष्य सदा के लिए बेकार हो जाता है।
लेखक का दूसरा मित्र दोपहर से पहले बाज़ार गया तथा शाम को खाली हाथ वापस आ गया। पूछने पर बताया कि बाज़ार में सब कुछ लेने योग्य था, परंतु कुछ भी न ले पाया। एक वस्तु लेने का मतलब था, दूसरी छोड़ देना। अगर अपनी चाह का पता नहीं तो सब ओर की चाह हमें घेर लेती है। ऐसे में कोई परिणाम नहीं होता। बाजार में रूप का जादू है। यह तभी असर करता है जब जेब भरी हो तथा मन खाली हो। यह मन व ज़ेब के खाली होने पर भी असर करता है । चीजें खरीदने का मन करता है। जादू उतरते ही फैंसी चीजें आराम नहीं, खलल ही डालती प्रतीत होती हैं। इससे स्वाभिमान व अभिमान बढ़ता है। जादू से बचने का एकमात्र उपाय यह है कि बाज़ार जाते समय मन खाली न रखो। मन में लक्ष्य हो तो बाज़ार आनंद देगा। वह आपसे कृतार्थ होगा। बाज़ार की असली कृतार्थता है-आवश्यकता के समय काम आना। मन खाली रखने का मतलब मन बंद नहीं करना है। शून्य होने का अधिकार बस परमात्मा का है जो सनातन भाव से संपूर्ण है। मनुष्य अपूर्ण है। मनुष्य इच्छाओं का निरोध नहीं कर सकता। यह लोभ को जीतना नहीं है, बल्कि लोभ की जीत है। मन को बलात बंद करना हठयोग है। वास्तव में मनुष्य को अपनी अपूर्णता स्वीकार कर लेनी चाहिए। सच्चा कर्म सदा इस अपूर्णता की स्वीकृति के साथ होता है। अतः मन की भी सुननी चाहिए।
क्योंकि वह भी उद्देश्यपूर्ण है। मनमानेपन को छूट नहीं देनी चाहिए। लेखक के पड़ोस में भगत जी रहते थे। वे लंबे समय से चूरन बेच रहे थे। चूरन उनका सरनाम था। वे प्रतिदिन छह आने पैसे से अधिक नहीं कमाते थे। वे अपना चूरन थोक व्यापारी को नहीं देते थे और न ही पेशगी ऑर्डर लेते थे। छह आने पूरे होने पर वे बचा चूरन बच्चों को मुफ़्त बाँट देते थे। वे सदा स्वस्थ रहते थे। उन पर बाज़ार का जादू नहीं चल सकता था। वे निरक्षर थे। बड़ी-बड़ी बातें जानते नहीं थे। उनका मन अडिग रहता था। पैसा भीख माँगता है कि मुझे लो। वह निर्मम व्यक्ति पैसे को अपने आहत गर्व में बिलखता ही छोड़ देता है।
पाठ्यपुस्तक से हल प्रश्न
पाठ के साथ
प्रश्न-1 बाजार का जादू चढ़ने और उतरने पर मनुष्य पर क्या-क्या असर पड़ता है? बातार का जादू चढ़ने और उतरने पर मनुष्य पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ते हैं-
उत्तर-
(i) बाजार में आकर्षक वस्तुएँ देखकर मनुष्य उनके जादू में बंध जाता है।
(ii) उसे उन वस्तुओं की कमी खलने लगती है।
(iii) वह उन वस्तुओं को जरूरत न होने पर भी खरीदने के। लिए विवश होता है।
(iv) वस्तुएँ खरीदने पर उसका अहं संतुष्ट हो जाता है।
(v) खरीदने के बाद उसे पता चलता है कि जो चीजें आराम के लिए खरीदी थीं वे खलल डालती हैं।
(vi) उसे खरीदी हुई वस्तुएँ अनावश्यक लगती हैं।
प्रश्न-2 बाजार में भगत जी के व्यक्तित्व का कौन-सा सशक्त पहलू उभरकर आता है? क्या आपकी नजर में उनका आचरण समाज में शांति स्थापित करने में मददगार हो सकता है ?
उत्तर- बाजार में भगत जी के व्यक्तित्व का यह सशक्त पहलू उभरकर आता है कि उनका अपने मन पर पूर्ण नियंत्रण है। वे चौक-बाजार में आँखें खोलकर चलते हैं। बाजार की चकाचौंध उन्हें भौचक्का नहीं करती। उनका मन भरा हुआ होता है, अतः बाजार का जादू उन्हें बाँध नहीं पाता। उनका मन अनावश्यक वस्तुओं के लिए विद्रोह नहीं करता। उनकी जरूरत निश्चित है। उन्हें जीरा व काला नमक खरीदना होता है। वे केवल पंसारी की दुकान पर रुककर अपना सामान खरीदते हैं। ऐसे व्यक्ति बाजार को सार्थकता प्रदान करते हैं। ऐसे व्यक्ति समाज में शांति स्थापित करने में मददगार हो सकते हैं क्योंकि इनकी जीवनचर्या संतुलित होती है।
प्रश्न-3 'बाजारूपन से क्या तात्पर्य है? किस प्रकार के व्यक्ति बाजार को सार्थकता प्रदान करते हैं अथवा बाजार की सार्थकता किसमें है?
उत्तर- 'बाजारूपन' से तात्पर्य है-दिखावे के लिए बाजार का उपयोग। बाजार छल व कपट से निरर्थक वस्तुओं की खरीद- फ़रोख्त, दिखावे व ताकत के आधार पर होने लगती है तो बाजार का बाजारूपन बढ़ जाता है। क्रय-शक्ति से संपन्न खाली मन वाले व्यक्ति बाजारूपन को बढ़ाते हैं। इस प्रवृत्ति से बाजार को सच्चा लाभ नहीं मिलता। शोषण की प्रवृत्ति बढ़ जाती है।
वे व्यक्ति जो अपनी आवश्यकता के बारे में निश्चित होते हैं, बाजार को सार्थकता प्रदान करते हैं। बाजार का कार्य मनुष्य की जरूरतों को पूरा करना है। जरूरत का सामान मिलने पर बाजार सार्थक हो जाता है। यहाँ 'पर्वेजिंग पावर' का प्रदर्शन नहीं होता।
प्रश्न-4 बाजार किसी का लिंग, जाति, धर्म या क्षेत्र नहीं देखता; वह देखता है सिर्फ उसकी क्रय-शक्ति को। इस रूप में वह एक प्रकार से सामाजिक समता की भी रचना कर रहा है। आप इससे कहाँ तक सहमत हैं?
उत्तर- यह बात बिलकुल सही है कि बाजार किसी का लिंग, जाति, धर्म या क्षेत्र नहीं देखता। वह सिर्फ ग्राहक की क्रय-शक्ति को देखता है। उसे इस बात से कोई मतलब नहीं कि खरीददार औरत है या मर्द वह हिंदू है या मुसलमान; उसकी जाति क्या है या वह किस क्षेत्र-विशेष से है। बाजार में उसी को महत्व मिलता है जो अधिक खरीद सकता है। यहाँ हर व्यक्ति ग्राहक होता है। इस लिहाज से यह एक प्रकार से सामाजिक समता की भी रचना कर रहा है। आज जीवन के हर क्षेत्र-नौकरी, राजनीति, धर्म, आवास आदि में भेदभाव है, ऐसे में बाजार हरेक को समान मानता है। यहाँ किसी से कोई भेदभाव नहीं किया जाता क्योंकि बाजार का उद्देश्य सामान बेचना है।
प्रश्न-5 आप अपने तथा समाज से कुछ ऐसे प्रसंग का उल्लेख करें-
(क) जब पैसा शक्ति के परिचायक के रूप में प्रतीत हुआ।
(ख) जब पैसे की शक्ति काम न आयी ।
उत्तर-
(क) जब पैसा शक्ति के परिचायक के रूप में प्रतीत हुआ-समाज में ऐसे अनेक प्रसंग हैं जिसमें पैसा शक्ति के परिचायक के रूप में प्रतीत हुआ। 'निठारी कांड' में पैसे की ताकत साफ़ दिखाई देती है। गरीब बच्चों को मारकर उनका मांस खाने वाले के खिलाफ़ मुकदमा भी ढंग से नहीं चलाया गया तथा उसके गरीब नौकर को दोषी करार दे दिया गया।
(ख) जब पैसे की शक्ति काम नहीं आई-समाज में अनेक उदाहरण ऐसे भी हैं जहाँ पैसे की शक्ति काम नहीं आती। 'जेसिका लाल हत्याकांड' में अपराधी को अपार धन खर्च करने के बाद भी सजा मिली।
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